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शैल, अस्थि, काष्ठ और तिनिशलता के खंभे के सदृश मान के पर्याय (=अवस्थाएँ) समझ । ये क्रमशः मन्द हैं और (मान के उदय में) क्रमशः (गतियों के) आयु का बन्ध होता है ।
टिप्पण-१. अनन्तानुबन्धी आदि चार प्रकार के मान को चार तरह के स्तम्भ की उपमा से समझाया गया है। मान के स्तर का निर्णय उसके तनाव की-कठोरता की तरतमता से होता है। २. शैलस्तंभ में न कोमलता होती है और न झुकाव ही। उसे कोई अति प्रयत्न से भी नहीं झका सकता। वैसे ही जिस मान के उदय से नाम मात्र विनम्रता नहीं होती है
और न अपने मान को दोष रूप में देख सकता है, प्रत्युत उसे गुण और सुखानुभूति का स्रोत समझता है, वह अनन्तानुबन्धी मान है । ३. मान के शेष तीनों अंशों के विषय में क्रमशः समझ लेना चाहिये। दूसरे स्तर में आंशिक रूप से विनम्रता आ जाती है। किन्तु उसमें उपादेय-बद्धि का अभाव हो जाता है और दुर्गुण रूप से प्रतीत होने लगता है । धर्म श्रद्धा में हानि पहुँचाने के स्तर तक पहुँचने पर जीव इसका परित्याग करने के लिये तत्पर हो जाता है । तीसरे स्तर में विशेष नम्रता आ जाती है। धर्म-प्रवृत्ति में बाधक होने पर स्वतः या उपदेश से उसके त्याग का तत्काल प्रयत्न होता है। मान के चौथे स्तर में अत्यन्त विनम्रता आ जाती है । उसके उदय से व्रत में किञ्चित् मात्र भी बाधकता हो रही हो तो समझ में आते ही तुरन्त ही उसे निष्फल कर देता है। ४. स्पष्ट ही ये स्तर क्रमशः मन्द होते हैं। तीव्र में अशुभता
और मंद में शुभता होती है । ५. अनन्तानुबन्धी क्रोध के साथ ही अनन्तानुबन्धी मान आदि रहते हैं अर्थात् अपने-अपने स्तरवाले कषाय के साथ ही शष कषाय रहते हैं । अतः उनके अस्तित्व में होनेवाले कर्म-बन्ध आदि भी सदृश होते हैं । मान-उत्पत्ति के हेतु आदि
सओ वा परओ माणो, बझंतर-निमित्तओ । लक्खिज्जइ पयत्तेण, जम्हा सासेइ मत्थयं ॥२३॥