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"बस...और...." "बस-वस कुछ नहीं। लोकैषणा में पड़े हो तुम ! स्वाध्याय भी कहाँ सही है। मात्र लोगों पर धाक जमाने के लिये पढ़ते हो। पूरे अहंकारी हो, तुम ! अभिमान के सभी लक्षण तुममें प्रकट हुए हैं। गुम्देव के प्रति द्वेष, रत्नाधिकों का उपहास, अवहेलनावचन, अकड़....क्या-क्या गुण नहीं आये तुममें ?" ____ "पिताजी ! पिताजी !"-युगवीर मुनि अपने पितामुनि के आवेश से स्तंभित हो गये। वे आकुलता से बोले-"आप ऐसे क्यो बोल रहे हो ? मैं आपका दुश्मन हूँ क्या ?" कुछ शान्त होते हुए-से रणधीरमुनि बोले- “मेरे दुश्मन होते तो कोई बात थी ! तुम जिनशासन के दुश्मन हो । अरे ! उसके भी नहीं, अपने आपके दुश्मन हो ! अभिमान ने कहीं का नहीं रखा है तुम्हें ! तुम में कुछ आस्था होयदि भव-भ्रमण घटाना हो, यदि अपने दुश्मन न बनना हो तो आ जाना प्रभु के मार्ग पर ! मैं जा रहा हूँ गुरुदेव के पास । मैं उनके निहोरे करूँगा, चरणो में गिरूँगा और जो प्रायश्चित देंगे, उसे ग्रहण करके शुद्ध बनूंगा...."
"अच्छा, आप गुरुदेव के पास जा रहे हैं"-युगवीर मुनि का स्वर पश्चाताप से काँप रहा था-"तो अकेले मत जाइये।"
"किसे साथ में ले जाऊँ ?” “मुझे ।” “तुम्हें ! इस रूप में !" "जिस रूप में आप ले जाने चाहें उस रूप में !" "सच" ! "सच" यह कहते हुए युगवीर मुनि के आँखों से अश्रु की दो बूंदें
ढुलक पड़ी। मान के स्तर की पहचान
सेलट्ठि-दारु-तिणिस-लया-थंभाव्व मुण माण-पज्जाया । । कमसो य होंति मंदा, आऊ-बंधो तहा कमसो ॥२२॥