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भी उसमें मिश्रण नहीं करना है । जिसे धर्म की सच्ची प्यास लगेगी तो वह खिंचा हुआ हमारे पास आयेगा ही । यदि उस समय हमारे पास शुद्ध धर्म होगा तो हम उसकी प्यास बुझा सकेंगे। इसमें पिछड़ने जैसा कुछ भी नहीं है।"
“पर, गुरुदेव विद्युत सचित्त नहीं है"
"मनिजी ! विवाद में उतरना अच्छा नहीं है । प्रत्यक्ष रूप से जीव इन्द्रियगम्य है ही नहीं । आज का विज्ञान इतना समर्थ नहीं है कि वह किसी वस्तु की सचित्तता-अचित्तता का निर्णय दे सके । भौतिक विज्ञान की दष्टि में अग्नि, मिट्टी, पानी आदि सचित्त हैं क्या ? विद्युत की सचित्तता का या अचित्तता का निर्णय अतिशय ज्ञानी के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं दे सकता। हम तो आगम-प्रमाण के अनुसार चलनेवाले साधारण साधक हैं । आगमों में ज्योति का आरंभ निषिद्ध है । विद्यत् दीप से आरंभ नहीं होता है क्या ? वह स्वयं महा-आरंभ से ही संचालित है और आरंभ करता है । उसके प्रयोग से पहले महाव्रत में दोष लगेगा ही।"
"गुरुदेव ! भगवान् के जमाने में विद्युत् का प्रयोग था ही नहीं। ये हजारों वर्ष पुरानी व्यवस्थाएँ हैं। इनसे चिपटे रहने में कोई सार नहीं। आज द्रव्य, क्षेत्र आदि सभी बदल गये हैं। अतः युग के अनुसार धर्म का रूप भी बदलना होगा।" ___"तुम धर्म-मर्यादा का उल्लंघन कर रहे हो, मुनिजी ! तुम्हारे वचनों से प्रवचन की आशातना हो रही है-इसका तुम्हें कुछ ध्यान है। इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन का ही हमें सम्प्रति आलम्बन प्राप्त है। यदि इसकी जड़ें ही खोद डालोगे तो फिर साधना की क्या दशा होगी..." तुम अभी शान्ति से शास्त्रों का अध्ययन करो। इन बातों में मत पड़ो"-गुरुदेव ने बहस का उत्तर न देकर, बात पर पटाक्षेप कर दिया। क्योंकि उन्हें उस समय युगवीर मुनि की बात सुनकर आवेश