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-सोचते थे— 'गुरुदेव इस सदी के जीव नहीं है । इन्हें युगबोध कुछ भी नहीं है । मैं उच्च शिक्षा प्राप्त फॉरेन रिटर्न तिनके जितना भी महत्त्व नहीं रखता हूँ - इनकी सम्यग् दृष्टि में ! ये बड़े ज्ञानी हैं ! इनके द्वार नये विचारों के लिये बंद हैं । ये क्या अपना भला करेंगे और क्या संघ का भला करेंगे? मैं तो इन लोगों के सत्संग से दूर था ! किन्तु कई उच्च शिक्षा सम्पन्न जन इनके संपर्क में आते हैं उनको वैराग्य क्यों नहीं आता - वे दीक्षित क्यों नहीं होते, इसका कारण अब समझ में आ रहा है। युग की आवाज को पहचानते ही नहीं हैं ये ! कितने दृढ़ रूढ़िवादी - कितने पुरातन पंथी हैं ये ! न बराबर साधनापद्धति है और न ज्ञान का ही ठिकाना है । इन मूढ लोगों में आ फँसा हूँ मैं !' इसप्रकार मन में गुरुदेव और साधुओं के प्रति द्वेष 'पनपने लगा । मन अशान्त था ही । अतः मानसिक बेचैनी बढ़ती जा रही थी। उन्हें वहाँ पद-पद पर अपनी अवहेलना - अवमानना होती हुई प्रतीत हो रही थी ।
वे बड़े-छोटे किन्हीं भी मुनि के साथ सीधे मुँह बात नहीं करते थे । अतः उन्हें प्रेम कहाँ से मिलता ? मुनिजन उनकी उपेक्षा तो नहीं करते थे। परन्तु उनसे बात करने में सभी कतराते थे । उनकी साधना के अंगों की अवहेलना से मुनिजनों का प्रसन्न नहीं होना स्वाभाविक ही था । वे क्यों चरित्र - भ्रष्टता के अनुमोदन के पाप में पड़ते ?
अब युग वीर मुनि ने प्रतिक्रमण करना ही छोड़ दिया । वन्दना आदि में भी उपेक्षा होने लगी । एकदिन गुरुदेव ने उन्हें समीप - बुलाकर प्रेम से कहा - " वत्स ! इसप्रकार तुम साधना की उपेक्षा क्यों करते हो ? तुम प्रतिक्रमण क्यों नहीं करते हो ?"
"क्या होना-जाना है, इन रटे-रटाये पाठों के पढ़ने से ? मेरे मन
का कुछ भी समाधान नहीं हुआ - इससे । इसलिये मैंने प्रतिक्रमण
करना छोड़ दिया । आपने भी प्रतिक्रमण से क्या पाया ?”
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