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आवेश में थे ही। अतः बात कहीं गंभीर दृष्टि से उन्होंने बात वहीं समाप्त कर दी । ( ४ )
युवावय थी । तप की कमी थी । नित्य प्रति दूध-दही के सेवन के बिना चलता नहीं था । अतः विकार युगवीर मुनि पर आक्रमण कर रहे थे । वे संयम - भावना से आत्मा को भावित कर नहीं रहे थे । उन्हें भावना-योग का अभ्यास कोई पुरुषार्थ ही प्रतीत नहीं होता था । गुरुदेव का विकार - जय के लिये रस- परित्याग और अवमोदरिका का उपदेश था । परन्तु वह भी उनसे नहीं बन पाता था । एकाशन तो बहुत दूर की बात, बीयासन भी नहीं करते थे । वस्तुतः तप में विशेष रस नहीं था । अनशन तप में आस्था थी । परन्तु एक उपवास से आगे बढ़ नहीं पाते थे । साहित्य भी संयम- पोषक नहीं पढ़ते थे । मात्र प्रवचन देने के लिये पल्लव- ग्रहण के समान कुछ व्याख्यानसाहित्य आदि पढ़ लेते थे । खुद का कुछ भी चिन्तन नहीं था । विशेष रूप से पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ते थे । काम विकार की हेयता के भाव ने हृदय में स्थान बनाया ही नहीं । वेदमोहनीय कर्म सत्ता में रहता ही है और वह उदय में भी आता ही रहता है । यदि साधक का ब्रह्मचर्य भाव दृढ़ नहीं होता है तो मन की दुर्बलता बढ़ती जाती है और मैथुन संज्ञा साधक को विचलित कर देती है । कुछ ऐसी ही दशा थी— युगवीर मुनि की । वे विचार करते थे कि मैं अपने मन को कैसे जीतूं !
आ गया था। मुनिजी तो रूप धारण न कर ले - इस
युगवीर मुनि का ध्यान योग-ग्रन्थों की ओर गया । उन्होंने वे पढ़े । वे आसन आदि करने लगे । दुग्ध की मात्रा भी बढ़ाई । विकारों पर जय के बजाय मन की चञ्चलता अधिक बढ़ने लगी । उन्हें लगा कि जैनधर्म की साधना पद्धति - भगवान महावीर की ध्यान -पद्धति नष्ट हो गयी। इसीलिए साधना में ओज की वृद्धि नहीं हो रही है । अब भगवान महावीर की ध्यान-पद्धति की खोज करनी होगी ।'
युगवीर मुनि को डाक्टरेट करने की ओर रात में विद्युत्प्रकाश में पढ़ने की अनुज्ञा प्राप्त नहीं हुई । इसलिये उन्हें बड़ा खेद हुआ । वे