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चाहिये । रात में अन्धेरे में बैठे-बैठे क्या करें ? यदि प्रकाश हो तो कुछ पढ़ें ।" रणधीर मुनि ने कहा - " ऐसा नहीं हो सकता, वत्स ! जैसे अन्य मुनि जप, स्वाध्याय और ध्यान करते हैं, वैसे तुम भी करो ।” उन्हें पिता मुनि की बात अति कटु लगी । वे चिढ़कर बोले" नहीं हो सकता ! क्यों ? क्या इसके पीछे कोई तर्क भी है ! " रणधीर मुनि बोले - " है क्यों नहीं ? हम आरंभ के त्यागी हैं और दीपक में आरंभ होता है । हमारे अहिंसा महाव्रत में दोष लगता है । इसलिये हम दीपक का उपयोग नहीं कर सकते ।" मुनिजी बोले - " वाह ! सब में आरंभ है । बस, तब हम मर जायँ तो ही संयम सुरक्षित रहेगा !"
एक दिन वे गुरुदेव से उलझ बैठे । वे बोले - "गुरुदेव ! यदि हम इन वैज्ञानिक साधनों की उपेक्षा करेंगे तो हम पिछड़ नहीं जायेंगे ?” "कैसी उपेक्षा और किसमें पिछड़ जायेंगे हम ?"
"गुरुदेव ! हम विद्युत, ध्वनि-प्रसारक, पंखा आदि वैज्ञानिक साधनों का उपयोग नहीं करेंगे - ज्ञान की नई-नई शाखाओं का अध्ययन नहीं करेंगे तो हमारे अनुयायी हमें छोड़ते चले जायेंगे और इसप्रकार हम पिछड़ जायेंगे ।"
“आयुष्मन् ! हमें आत्मदृष्टि से ही अध्ययन करना है - दृष्ट नहीं । ज्ञान की विविध शाखाओं के अध्ययन की कोई मनाई नहीं है । परन्तु वह अपनी मर्यादा में रहकर ही होना चाहिये । साधक का भला विज्ञता से नहीं, साधना से होता है - यह नहीं भूलना चाहिये । पहले अपनी साधना का रहस्य तो हृदयस्थ हो । फिर अन्य ज्ञान करो । यदि अन्य ज्ञान के अध्ययन से चित्त किसी मताग्रह में बँध जायेंगे तो साधना का ज्ञान ग्रहण कैसे होगा ? फिर साधना से भ्रष्ट होते देर नहीं लगेगी” – गुरुदेव ने युगवीर मुनि के मुँह पर दृष्टि डालकर बोलना जारी रखा-' -“अरे ! अनुयायियों के छोड़ देने की चिन्ता क्यों करते हो ? अभी भौतिकता की दौड़ तेज है । इसलिये धर्म की खप कम हो गयी है । परन्तु हमें अपनी साधना करते जाना है -कुछ