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युगवीर मुनि के हृदय में बड़ा दुःख हुआ । वे सोचने लगे'गुरुदेव पुराण-पंथी हैं । इनके विचार एकदम पिछड़े युग के हैं । मैं डबल एम. ए. शिक्षित युवक हूँ । मैंने विदेश देखा है । ये तो कूपमण्डूक ही हैं । मैं इनकी आज्ञा में चलूं ? क्या लाभ ?' वे बोल तो कुछ नहीं सके । किन्तु उनके मन में गुरुदेव के प्रति द्वेष की ग्रन्थि पड़ गयी । गुरुदेव ने उन्हें डाक्टरेट करने की आज्ञा नहीं दी। उन्हें भी आज्ञा के उल्लंघन का साहस नहीं हुआ । जिससे द्वेष में वृद्धि ही हुई।
गुरुदेव ने उनकी प्रशंसा करना बन्द कर दिया । वे क्रियाओं को सम्यक् रूप से साधने में प्रमाद करते । रत्नाधिक मुनि उन्हें प्रेरणा करते तो वे उनका उपहास करते हुए कहते हैं-"आप इतने वर्षों से ये क्रियाएँ कर रहे हैं । क्या उपलब्धि हुई आपको?" इसप्रकार वे हर बार रत्नाधिकों का उपहास करते । उन्हें व्यंग-वचनों से वेध देते । वे साध-संघ में अप्रिय होने लगे । रणधीर मुनि उन्हें समझातेकुछ शिक्षा की बात कहते । वे झल्ला उठते-"मैं कहाँ आ फँसा ? कितनी संकीर्ण विचार-धारा है ! कहाँ है इनमें आत्म-विकास ? मैं ही इनमें सबसे अधिक शिक्षित हूँ । इसलिये मेरे प्रति ईर्ष्या हैइनके मनमें और गुरुदेव ने इसीलिये मुझे डाक्टरेट करने की आज्ञा नहीं दी कि कहीं लोग मुझे ही महत्त्व देने न लग जायें !"
___ रणधीरमनि कहते-"चुप ! चुप ! ऐसा नहीं बोलते । गुरुदेव तो परम उपकारी हैं।" वे व्यंग से कहते-"हाँ, परम उपकारी तो हैं ही वे ! डंडे के बल से वाड़े में बन्ध जो करते हैं ?"
_____ अब कोई भी म नि उनकी प्रशंसा नहीं करते । उनसे बात करने से कतराते । युगवीर मुनि के हृदय में उनके प्रति तिरस्कार की भावना पनपने लगी । कभी-कभी वे वन्दन भी ठीक से नहीं करते । एक बार उन्होंने रणधीरमुनि से कहा-“स्थानक में बिजली का प्रबन्ध होना