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( ६२ )
युगवीर ने अपने भाई के सामने अपनी भावना प्रकट कर दी । भाई को उसकी बात सुनकर आश्चर्य हुआ - विश्वास ही नहीं हुआ । उसने उसे बहुत समझाया । परन्तु उसने भाई की एक बात नहीं मानी । आखिर में गुणधीर ने आज्ञा दी और एक दिन युगवीर दीक्षित हो गया ।
( ३ )
युगवीर मुनि बड़े उत्साह में थे। उनकी प्रशंसा के गीत बहुत गाये गये । उन्हें बहुत बधाइयाँ मिलीं। इस प्रशंसा से यह भाव तो नहीं आये कि 'मैं जिनशासन पाकर कृतकृत्य हो गया हूँ | चरित्र - धर्म के पालन का मुझे स्वर्ण अवसर मिला है। मैं धन्य हो गया हूँगौरवशाली हो गया हूँ ।' किन्तु ये भाव उत्पन्न हुए- 'मैंने जैनधर्म में गौरव - पूर्ण कार्य किया है। मैं जिनशासन के गौरव की वृद्धि करूँगा ।" युगवीर मुनि को संयम की प्रत्येक क्रिया में रस आ रहा था । वे बड़े उत्साह से आराधना में रत हो रहे थे ।
उनके प्रति नवयुवकों का अत्यधिक आकर्षण था । जहाँ भी कहीं जाते, उनकी प्रशंसा की जाती । नवयुवक उनके पास धर्मचर्चा करने आते । मुनिजी का ज्ञान अधकचरा था। अभी तो ज्ञान का रंग कुछ लगा ही नहीं था। युवकों का धर्मज्ञान भी कोई विशिष्ट नहीं था । वे अपने साधारण ज्ञान के आधार से युवकों में धर्मचर्चा करते थे । उन्होंने अंग्रेजी में लिखे गये प्रसिद्ध जैनेतर दार्शनिकों के यत्किचित ग्रन्थ पढ़े थे । 'चूहे को मिली चिंदी और वह बन गया बजाज' जैसी उनकी स्थिति थी । वे अब जैनधर्म में क्रान्ति के सपने देखने लगे । युवक उन पर प्रशंसा के पुष्प बिखेरते हुए कहते -" आपके विचार युगानुकूल हैं । जैन मुनि अभी तक उपाश्रय की चहारदीवारी में ही बन्द रहे । जिससे जैनधर्म सिमटकर वणिकों तक ही रह गया । आप क्रान्ति करिये । फॉरेन जाइये । जैनधर्म को विश्व धर्म बनाइये ।" अब आराधना का रस मंद होने लगा ।