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गुरुदेव कहते हैं-“थोड़ा ज्ञान कण्ठस्थ करो। थोड़ा स्वाध्याय बढ़ाओ।"
उसने गुरुजी को झट उत्तर दिया-“गुरुदेव ! मुझसे रटा नहीं जाता और रटने से क्या होता है । किताबों में सब छपा हुआ है ही । जब चाहें तब पढ़ सकते हैं -स्वाध्याय कर सकते हैं..."
गुरुदेव उनकी बात सुनते हुए उनके मुख के भाव पढ़ते रहे । उन्हें लगा कि इसे प्रशंसा का अजीर्ण हो रहा है । वे कुछ नहीं बोले । युगवीर मुनि को शास्त्रों के अध्ययन में रस नहीं आता था । वे इधर-उधर का साहित्य पढ़ते थे । वे अपने हृदय में शुभ भाव के उत्पादन और उसके पोषण के लिये कुछ भी नहीं करते थे । 'मैं साधक हूँ'- यह भाव ही विस्मृत-सा हो रहा था । उन्हें प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण आदि तारकपावन क्रियाएँ अकिञ्चित्कर और बोझ लगने लगीं । उन्हें विचार आया-क्यों न मैं डाक्टरेट कर लूं?'
उन्होंने गुरुदेव से अनुज्ञा चाही-"गुरुदेव ? मैं डाक्टरेट करना चाहता हूँ।" गुरुदेव ने पूछा-“इससे तुम्हें क्या लाभ होगा ?" वे हँसते हुए बोले-“मुझे अध्ययन का लाभ होगा और संघ का गौरव बढ़ेगा कि एक मुनि इतने उच्च शिक्षित हैं !" .... "आयुष्मन् ! अध्ययन की उच्चता का स्तर डिग्री नहीं है । आज जिन कबीर, तुलसीदासजी, सूरदासजी आदि कवियों के काव्यों पर डाक्टरेट की जाती है, उन कवियों को कौनसी उपाधि प्राप्त थी। ज्ञान की स्तर-मर्यादा निर्मित होती है, उसकी गंभीरता, विशुद्धता, विपुलता, कल्याणरूपता आदि से। आयुष्मन् ! ये डिग्रियाँ अध्यात्ममार्ग के कण्टक हैं । तुम डबल एम. ए. हो ही । अब और अपने आराधनामार्ग में काँटे उत्पन्न मत करो-" गुरुदेव क्षण भर रुके । युगवीर मनि का मुख एकदम भाव-विहीन फीका हो गया था । वे कुछ बोल न पाये । गुरुदेव पुनः बोले- “और मुनिजी ! संघ का गौरव तो तप और संयम की वृद्धि में है।"