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"आयुष्मन् ! हमने क्या पाया-इसका लेखा तो भगवान् ही बता सकेंगे । किन्तु तुमने प्रतिक्रमण छोड़कर क्या पाया, कहो तो बता दूं ?" ___ "बताइये"-विद्रूप हँसी हँसते हुए युगवीर मुनि बोले ।
"प्रमाद । अपने दोषों का पोषण । गुरुजनों के प्रति तिरस्कार। साधना का विस्मरण । जिनशासन के प्रति अनादर और विकृत चिन्तन ।"
यह सुनकर य गवीर मुनि एकदम उत्तेजित हो उठे। वे क्रोध में तम-तमाते हुए बोले-"बस, आपके यहाँ यही साधना है--परदोषदर्शन की ! मैं दोषी हूँ, प्रमादी हूँ, खराब हूँ। मेरा ही चिन्तन विकृत है और आप सबका उत्तम । दंभ की भी कोई सीमा है !...' ___शान्ति से बात करिये, मुनिजी !"--गुरुदेव ने उन्हें आगे बोलने से रोककर कहा-“अपना आपा मत खोइये । मुनिजी ! दोष को दोष और गुण को गुण समझना ही होगा। नहीं तो उसका परिमार्जन कैसे किया जा सकेगा-उनके परिवर्जन की प्रेरणा कैसे दी जा सकेगी ? यदि ऐसा नहीं किया जाय तो संघ में साधना कैसे व्यवस्थित रहेगी। क्रोध मत करिये । शान्ति से सोचिये और अपनी साधना को व्यवस्थित कीजिये ।” ।
__ “यदि ऐसा है तो मैं आपके संघ में नहीं रह सकूँगा। आपके यहाँ विचार-स्वातंत्र्य नाम मात्र को नहीं है।" उनकी आँखों में क्रोध की ज्वाला भभक उठी । - गुरुदेव ने वात्सल्य से स्निग्ध शब्दों में कहा-वत्स ! क्यों भटक रहे हो? तुम उत्तम कुल के समझदार मानव हो। तुम्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिये। मर्यादा ही जीवन है। मानव-जीवन की महिमा मर्यादा में ही हैं। जिन आज्ञा प्रधान ही जिनशासन है। साधक-संघ में विचार-स्वातंत्र्य नाम की उच्छं खलता नहीं होती। साधक समर्पण