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और, होठ पर कुछ और तथा व्यवहार में कुछ और । मैं जो कुछ करना चाहता हूँ, वह प्रामाणिकता से ही करना चाहता हूँ।" । ___ पिता सहजता से कह देते-"अच्छा तो प्रामाणिकता से ही करो।" "मुझे ये नियम, धर्म की बातें अच्छी ही नहीं लगती हैं। तुच्छ हैंनिःसार हैं ये बातें ।" नयनसुखजी हार जाते थे ।
यों मदन आधुनिक तड़क-भड़क का विश्वासी नहीं था । उसका रहनसहन सादा ही था । ऐसा लगता था कि वह मात्र पिता को दुखी करने के लिये ही विपरीत चलता है।
उसे पिता की धार्मिकता धार्मिकता लगती ही नहीं थी । अधिकांश श्रावक भी उसे पिता जैसे ही लगते थे। पिता उसे किसी धंधे में लगाना चाहते थे । उस प्रसंग के वार्तालाप में उसने नैनसुखजी को आड़े हाथों लिया-"आप धंधे की कहते हैं ! आप लोगों के व्यापार मुझे फूटी आँखों नहीं सुहाते । मात्र लाभ कमाने की ही आप लोगों की वृत्ति है । ब्याज खाऊ आपके धंधे हैं । धर्म तो आप लोगों ने ऊपर से ओढ़ रखा है। आपमें प्रामाणिकता का कुछ अंश है भी क्या ? कभी ईमानदारी से टटोला है अपनी व्यापार-पद्धति को ?" नयनसुखजी इन वचनों से मर्माहत हो उठे । वे अपने व्रतों में दोष नहीं लगे इस प्रकार व्यापार करते थे । उनकी समझ के अनुसार तो वे प्रामाणिकता से ही व्यवहार करते थे । वे दुखियों पर यथायोग्य अनुकम्पा करते थे । कई स्वत्वविहीनों को ऋण-मुक्त भी कर देते थे। परन्तु जो जानबूझकर ऋण नहीं चुकाते थे-ऋण हड़पने की फिराक में रहते थे, उनके प्रति अति कठोर हो जाते थे और उससे ऋण लेकर ही छोड़ते थे । उसमें कुछ आड़े-टेढ़े मार्ग अपनाने पड़ते तो बेहिचक अपनाते । क्योंकि वे मानवीय दुर्बलता से एकदम मुक्त तो नहीं थे । वे दुखी हृदय से बोल पड़े-"इतने बड़े हो गये हो ! लिख-पढ़ गये ! फिर तुम्हारी बोलने की तमीज़ कहाँ गायब हो गयी ? यह तो हमारी तुम्हारी दृष्टि का अन्तर है। श्रावक कभी भी पापको करणीय नहीं समझता । वह समस्त पापों को छोड़ने का अभिलाषी होता और जितनी शक्यता होती है, उतना छोड़ता है । जो