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टिप्पण-१. दोनों गाथाओं में क्रोध के पाँच कारण बताये हैं१. असहनशीलता, २. असामर्थ्य, ३. काम, ४. आशा और ५. कषाय । २. असामर्थ्य अर्थात् शारीरिक और मानसिक दुर्बलता । शरीर की दुर्बलता भी सहनशीलता को कम कर देती है। मानसिक असामर्थ्य में प्रधान है-अधैर्य । धैर्य के अभाव से भी जीव क्षभित होता रहता है । ३. काम अर्थात् इन्द्रियों के विषयों की चाह । आशा अर्थात् किसी से कुछ भी पाने की भावना । इन दोनों के लिये इच्छा शब्द का भी प्रयोग किया जा सकता है। ये दोनों भाव क्रोध की योनि = उत्पत्ति स्थान सदृश ही हैं । ४. क्रोध से-क्रोध की उत्पत्ति और वृद्धि होती है। मान-हानि से, माया के प्रकट होने से और लोभ के कारण भी क्रोध उदय में आता है,। ५.. अपने लिये, पराये के लिये, दोनों के लिये और किसी के लिये भी नहीं निरर्थक—ये चार भंग क्रोध के प्रयोजन के विषय में प्रकाश डालते हैं । ६. क्रोध कभी तीव्र रूप से बाहर प्रकट होता है और कभी भीतर ही धधकता रहता है । ये दोनों क्रोध की अभिव्यक्ति के प्रकार बतलाते हैं। ७. क्रोध के चार पात्रों का उल्लेख किया है-जीव, अजीव सद्गुण और दुर्गुण । लोक में पदार्थ ही दो प्रकार के हैं-जड़ और चैतन्य । यहाँ 'जीव' शब्द से जिन जीवों से संसर्ग होता है उन्हें और अजीव' शब्द से जो जड़ पदार्थ इन्द्रियगोचर होते हैं उन्हें प्रमुख रूप से ग्रहण करना चाहिये । ८. सद्गुण के दो भेद-लौकिक और लोकोत्तर । लौकिक गुण के भी दो भेद-पुण्यजनित और क्षयोपशमजनित। यश, वैभव, सुख, सौन्दर्य, स्वरमाधुर्य आदि पुण्यजनित गुण हैं और विद्या, औदार्य, सदाशयता आदि क्षयोपशमजनित मुण हैं । इन लौकिक गुणों के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, अप्रीति आदि भाव हो सकते हैं । लोकोत्तर सद्गुण के तीन भेद-आराध्यगत, आराधकगत और आराधनागत । जिनदेव और सिद्धप्रभु के अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन आदि गुण आराध्यगत हैं। आचार्य का अनुशासन, उपाध्याय का शिक्षण और साधु का आत्मसाधनये आराधकगत गुण हैं और क्षमा आदि दश धर्म, महाव्रत, समिति आदि आराधनागत गुण हैं । इनके प्रति आक्रोश, अरुचि, अप्रीति आदि रूप क्रोध हो सकता है। ९. दुर्गुण के दो प्रकार--पौद्गलिक और आत्मिक ।