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शारीरिक व्याधियाँ, अभाव से उत्पन्न दुःख, कुरूपता, अपयश, विघ्नबाधाएँ आदि पौद्गलिक दुर्गुण हैं तथा मानसिक रोग, अज्ञान, ऐन्द्रियिक ज्ञान की हीनता, काम, क्रोध, अश्रद्धा, निद्रा आदि आत्मिक दुर्गुण हैं । इन दुर्गुणों के प्रति भी क्रोध उत्पन्न हो सकता है । १०. 'क्रोध आना' आत्मिक सामर्थ्य की न्यूनता का चिह्न है। लौकिक नीतिकार ने भी कहा है-समा वीरस्य भूषणम् । मान के कार्य
सोच्चत्तं पर - होणतं, अप्पगुणम्मि पुण्णया। महत्तं पर-वत्थूणं, थद्धत्तं होंतिमाणओ ॥१५॥
अपने में उच्चता के भाव, दूसरों में हीनता के भाव, (अपने) अल्प गण में पूर्णता के भाव, परवस्तु की महत्ता के भाव और स्तब्धता = अकड़ के भाव मान से होते हैं ।
टिप्पण-१. मान मोहनीय कर्म के उदय से जीव में अपने बड़प्पन और पर की तुच्छता के भाव होते हैं-उसे मान कहते हैं । २. मान की दो प्रकार से अभिव्यक्ति होती है-अपने प्रति बहुमान और दूसरे के प्रति तिरस्कार भाव । ३. पर्यायों के दो प्रकार हैं । यथा--द्रव्याश्रित और गुणाश्रित । इनके भी शुभ-अशुभ दो-दो भेद हैं । उत्तमकुल में जन्म, पूज्यत्व, यौवन, स्वास्थ्य आदि द्रव्याश्रित शुभ पर्यायें हैं और निम्न कुल में जन्म, निंदनीयता, वृद्धावस्था आदि द्रव्याश्रित अशभ पर्यायें हैं । शरीरगत वर्णादि की विशेषता, ज्ञानादि गुणों की अधिकता, पूर्णता आदि गुणाश्रित शुभ पर्यायें हैं और इनसे विपरीत गुणाश्रित अशुभ पर्यायें हैं । ४. यहाँ मान के प्रमुख रूप से चार कार्य बतलाये हैं । यथा--द्रव्याश्रित शुभ पर्यायों में गर्व, गुणाश्रित शुभ पर्यायों में गर्व, इष्ट संयोग में गर्व और स्तब्धत्व अर्थात् अकड़। अपने को उच्च और दूसरे को हीन मानना-यह द्रव्याश्रित शुभ पर्यायों का गर्व है । अपने को गुणों में पूर्ण मानना और दूसरे को तुच्छ—यह