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खेलना आदि मषावाद, अदत्तादान, हिंसादि पापों के प्रसंगों की रचना इस मानदेव की पूजा के लिये ही तो होती है । ५. जिस धन के अर्जन के लिये समय-असमय में तनतोड़ परिश्रम किया जाता है, उसे पानी की तरह बहा दिया जाता है-उसका धुआँ उड़ा दिया जाता है-वाहवाही के लिये ही तो ! इसी हेतु अपनी समस्त तन-जनादि की शक्तियाँ खर्च की जा सकती है। ६. सन्मान पाने का प्रसंग हो तो कभी मनुष्य एकदम मुखर हो जाता है तो कभी एकदम मौन ! कितने खेलों को गिनाया जाय?" ७. इसप्रकार मान की अनुक्रियाओं का लेखा करना अत्यन्त कठिन है। मान की प्रतिक्रिया का स्वरूप--
माणेण जायए माणो, माणि हीति माणवा । हसंति हत्थ-तालेण, जं अभाविअं मणं ॥१९॥
यदि (जिनाज्ञा से) अभावित मन होता है तो मान से मान ही उत्पन्न होता है और मानी की अन्य मानव अवहेलना करते हैं और हाथ से ताली बजाकर हँसते हैं।
टिप्पण-१. मान की प्रतिक्रिया दो स्थान पर होती है-मानी में और अन्य मनुष्यों में। २. मनुष्यों में मानकषायवालों की विपुलता है। अतः परस्पर मान की टकराहट होती है। ३. स्व में मान की प्रतिक्रिया है-पुनः मानमोहनीय का बन्ध और परमें उसके मानकषाय का उदय होना-यह परस्थानीय प्रतिक्रिया है। ४. परके मान का उदय होने पर वह मानी की अवहेलना और उपहास करता है, जिससे क्रोध कषाय रूप प्रतिक्रिया पुनः मानी में उत्पन्न होती है। यों वैर-परम्परा का चक्र चल पड़ता है। ५. जिन आज्ञा से भावित चित्त में मान का उदय ही नहीं हो पाता है। उदय कदाचित् हो जाता है तो वह आगे अनुक्रिया तक नहीं पहुँच पाता है।