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ही तो है । मानियों का मान टकराता रहता है- परस्पर । बलवान मानी दुर्बल मानी के मान को काट देता है । किन्तु वह बलवान मानी भी कोमल हृदयवाले नम्र मानव के समक्ष हतप्रभ रह जाता है। वाह ! वाह ! क्या उत्तम बात ! "
“हाँ ! भाई ! विनयभाव से भावित आत्मा ही वास्तविक विनम्र होता है और उससे मानी का मान हार जाता है ।" महत्वा शक्ति की उत्पत्ति की पहचान -
स- महत्तस्स आसत्ती माणेण जायए मणे । कम्म-भावय- एगत्त, जाव हवेऽप्पणा सह ॥ २० ॥
जबतक कर्म का भावजनित एकत्व आत्मा के साथ रहता है, तबतक मन में मान से अपने महत्व की आसक्ति की उत्पत्ति होती रहती है ।
टिप्पण - १. कर्म का आत्मा के साथ तीन प्रकार का एकत्व संभव है — १ . बन्धात्मक, २. उदयात्मक और ३. भावनात्मक । २. जब काययोग प्रवृत्त होता है, तब कर्म आत्मा में प्रविष्ट होकर उसके साथ जुड़ जाता है - आत्ममय बन जाता है—यह है बन्धात्मक एकत्व । ३. जब सत्तागत कर्म उदय में आते हैं, तब आत्मा कर्म के उदय से आकर्षित अन्य पुद्गलों से जुड़कर —— कर्मजनित रस में लीन होकर तत्तत् अवस्थाओं में परिणत होता है - यह उदयात्मक एकत्व है । ४. कर्म की उदयावस्था में निर्मित आभ्यान्तर परिणति और बाह्य परिणति में अहंत्व का मैं पन का आरोपण भावनात्मक एकत्व है । यहाँ इस भावनात्मक एकत्व को ग्रहण किया है । ५. महत्त्व की आसक्ति अर्थात् महत्वाकांक्षा । महत्त्वाकांक्षा के दो रूप हैं—आत्मिक महत्त्वाकांक्षा अर्थात् परमात्मस्वरूप पाने की अभिलाषा और अनात्मिक महत्त्वाकांक्षा अर्थात् पौद्गलिक भावों से बड़ा बनने की इच्छा । ६. आत्मिक महत्त्वाकांक्षा मानमोहनीय के उदय से नहीं होती है। किन्तु उसके आंशिक क्षयोपशम से होती है । किन्तु कर्म के
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