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साथ आत्मा का भावनात्मक एकत्व होने पर और मानकषाय के उदित होने पर अनात्मिक महत्त्वाकांक्षा जाग्रत होती है। ७. कर्म के साथ आत्मा का भावनात्मक एकत्व बना रहना मिथ्यात्व रूप है। आंशिक रूप से प्रमाद के कारण भी ऐसी अवस्था कदाचित् हो जाती है। ८. कर्म से भावनात्मक एकत्व के अभाव में मानकषाय के उदय होने पर भी भौतिक महत्व में आसक्ति समाप्त हो जाती है। ९. बन्धात्मक एकत्त्व दसवें गुणस्थान तक (कषाय के कारण) और उदयात्मक एकत्व तेरहवें गुणस्थान तक रहता है। चौदहवें गुणस्थान में सर्वतः मुच्यमान दशा के कारण कर्मोदय होने पर भी उदयात्मक एकत्व नहीं रहता। १०. यदि तीसरा चरण कम्मय-भावएगत्तं और 'कर्म-जनित भावों में आत्मा एकत्व अनुभव करता है' यह हो तो यह भाव भी मान की उत्पत्ति का हेतु हो सकता है।
मानोदय के लक्षण
सो उदिओ मणं दुळं, वयणं हास-हीलियं । कायं करेइ थद्धं च, अप्पस्सअवमाणणं ॥२१॥
मान उदय (प्रभावशाली) होकर मन को द्वेषभाव से युक्त, वचन को हास-हीलना से युक्त और काया को स्तब्ध = तनी हुई कर देता हैआत्मा की अवमानना करता है।
टिप्पण-१. मान के मुख्य पाँच लक्षण बतलाये हैं-द्वेष, उपहास, 'तिरस्कार, तनना-तानना और आत्म-अवमानना । २. मान के उदय से मन में द्वेष या दुष्ट भावना-दूसरे का अहित करने की वत्ति उत्पन्न होती है। ३. द्वेष की वृत्ति आगे बढ़कर उपहास में बदल जाती है। वचन में तीक्ष्ण उपहास मिश्रित हो जाता है। ४. हीलना अर्थात् तिरस्कार। यह दो प्रकार से अभिव्यक्त होती है--ज्येष्ठों और वरिष्ठों के प्रति आशातना के रूप में और समकक्ष तथा लघुजनों के प्रति तुच्छकार के रूप में। ५. स्तब्धता अर्थात् अकड़। अभिमान के कारण काया में जो तनने की चेष्टा