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( ४३ ) टिप्पण-१. गिरिराजि=पर्वत की फाट । पृथ्वीराजि =पृथ्वी की तड़ । वालुराजि=वाल रेत में खिंची हुई लकीर। जलराजि == जल में खिंची जाती हुई लकीर। २. क्रोध का प्रधान कार्य भेद है । भेद जितना गहरा और स्थायी होता है, उतना ही क्रोध तीव्र होता है । अनन्तानुबन्धी आदि प्रकार के क्रोध की तीव्रता को समझने के लिये इन चार राजियों की उपमा दी गयी है। ३. जैसे पर्वत की फाड़ प्राकृतिक कारणों से होती है । फिर उस फाड़ को जोड़ना किन्हीं प्रयत्नों से संभव नहीं होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी स्तर का क्रोध, जो मन में भेद उत्पन्न करता है, वह किसी के भी प्रयत्न से नहीं पटता है और वह उस क्रोध के उदय से चलता रहता है। उसे किसी निमित्त की प्रायः अपेक्षा नहीं रहती है। ४. तद्योग्य प्राकृतिक कारणों के अभाव से या अन्य प्राकृतिक कारणों से वह गिरिराजि पट जाती है। वैसे ही अनन्तानुबन्धी के क्षय से या उसके बन्ध के अभाव से तज्जनित भेद का अभाव हो जाता है। किन्तु यह सौभाग्य से ही हो सकता है। ५. पृथ्वीराजि कृत्रिम-प्रयत्नजन्य और प्राकृतिक दोनों प्रकार की हो सकती है। किन्तु वह थोड़े प्रयत्न से या वर्षा के जल से पट जाती है । वैसे ही अप्रत्याख्यानी क्रोध प्रबल निमित्त और स्वतः दोनों प्रकार जड़ जमाता है । उस क्रोध से उत्पन्न भेद कुछ अधिक श्रम से साध्य होता है अथवा बारह मास की भीतर-भीतर धर्म-भावना के प्राबल्य से वह भेद समाप्त हो जाता है। ६. वालुकाराजि कदाचित् प्राकृतिक होती है, किन्तु अधिकतर प्रयत्नजन्य होती है । जहाँ हवा नहीं चलती है, वहाँ तक वह रेखा रहती है । किन्तु सहज ही प्रयत्न हो तो वह रेखा तुरन्त मिट जाती है । वैसे ही प्रत्याख्यानावरणक्रोध से उत्पन्न भेदभाव तत्कर्म के उदय के कारण कदाचित् स्वतः होता है । परन्तु अति विरोध आदि कारणों से (देशविरतजनों के हृदय में) उदित क्रोध से वह भेद-रेखा निर्मित होती है। किन्तु आत्मालोचन आदि धर्म-अंगों से सीमित समय में वह भेदभाव स्वतः गायब हो जाता है और समझानेवाले सद्गुरु या सत्पुरुष के सामान्य से प्रयत्न से वह सहज में चला जाता है। ७. जलराजि कदाचित् स्वतः न तो अधिक गहरी ही होती है और न लम्बी ही किन्तु प्रयत्नजन्य होती है तो इधर खिची जाती है और