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और गुरुदेव दोनों ही गृहीत होते हैं। ३. सद्गुरु के सत्संग के पश्चात् दुःख के सही कारण रूप कषाय प्रतीत होते हैं। 'मेरे जितने भी दुःख हैं वे सब कषायजनित ही हैं। दुःख का हेतु कषायों के सिवाय अन्य नहीं है' -जब यह प्रतीति होती है, तब यह बोध दृढ़ हो जाता है कि मैं कषायों के कारण ही दुःखी हूँ। ४. दुःख अप्रिय हैं । अतः दुःख के कारण भी जीव को कभी प्रिय नहीं हो सकते हैं । उन्हें छोड़ने के लिये जीव आकुल हो उठता है और 'कैसे छुटें' -इसके उपाय खोजने लगता है। ५. कषाय ही दुःख हेतु हैं। अतः उन्हें छोड़ने के लिये भव्य जीव आकुल है। वह गुरुदेव से यही कह रहा है - 'वे मुझे कैसे छोड़ेंगे?' इस कथन में कषाय से छुटने की भावना तो है । किन्तु उपायों की जिज्ञासा नहीं है। कषाय के बल से त्रास की भावाभिव्यक्ति है। इसलिये आगे वह कषायों के आतंक का उल्लेख करता है। ६. ऊर्ध्वगत अर्थात् ग्यारहवें उपशान्त मोह गुणस्थान पर आरूढ़ जीव, उपशान्त भाव के निवृत्त होते ही दबे हुए कषायों से ग्रस्त हो जाता है। ७. नोचे-नीचे अर्थात् कषाय उस जीव को नीचे के गुणस्थानों पर लाते हुए. प्रथम गुणस्थान पर ले आते हैं। ८. अत्यन्त आत्मबली भी कषायों का जोर होने पर एकदम निःसत्त्व हो जाते हैं। अनाथ से भी हीनतर दशा हो जाती है उनकी। शिष्य उन सत्त्वशाली आत्माओं से अपनी तुलना करता है। अतः उसे लगता है कि मैं तो उन हिमतुंग-से-उत्तुंग मनुष्यों के सामने अत्यन्त वामन हूँ। आराध्य गुरुप्रवर शिष्य को आश्वासन देते हैं
'अहीरो भव्व ! मा हुज्ज, ण तुम असि दुब्बलो । उच्चकक्खाऽणुतिण्णस्स, णिण्णस्स होइ कि फलं' ॥३॥
'हे भव्य ! अधीर मत होओ। तुम दुर्बल नहीं हो । उच्च कक्षा में अनुत्तीर्ण का फल निम्न कक्षावाले के लिये क्या होता है ?
टिप्पण-१. परपक्ष का बल देखकर अधीर बनने से उसको जीतने की आशा क्षीण हो जाती है । क्योंकि अधैर्य के कारण अपने बल को संजोया