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करना चाहिये। ३. दुर्बल होते हुए कषाय क्षयवत् हो जाते हैं या अपने स्वाधीन हो गये हैं-इस बात पर विश्वास नहीं करना चाहिये। क्योंकि वे कभी भी जरा-सी असावधानी से सबल होकर जीव को अपने अधीन कर लेते हैं। ४. उन्हें जीतने के लिये सतत श्रम करना चाहिये और अप्रमत्त रहना अर्थात् अपने चित्त को उनसे वासित नहीं होने देना चाहिये। कषायों को दुर्बल करने के उपाय कहते हैं
किसीकाउ कसायाणं तेहितो मुत्तिमिच्छसि । "तस्सरुवं तु चिन्तेज्जा, ते निरिक्खिज्ज अप्पणि ॥५॥ तेसि, हाणि च "हेयत्तं, 'अगिज्मयं अणण्पयंपस्स, मा गिव्ह, ‘मा कुज्जा, रइंति होज्ज दुब्बला ॥६॥
हे भव्य ! यदि उन कषायों से मुक्ति चाहता है, तो उन्हें कृश करने के लिये उनके स्वरूप का चिन्तन कर, अपने में उनका निरीक्षण कर
उनकी हानि, हेयता, अग्राह्यता और अनात्मता को देख । (उन्हें) ग्रहण मत कर । उनमें रति मत कर । इन (उपायों) से (वे कषाय) दुर्बल होते हैं।
___ टिप्पण-१. इन दो गाथाओं में आठ द्वारों का नाम-निर्देश किया है। यथा--१. स्वरूप-चिन्तन, २. निरीक्षण, ३. हानि पश्यना, ४. हेयत्व-पश्यना, ५. अनुपादेयता-पश्यना, ६. अनात्मता-पश्यना, ७. अपरिग्रह और ८. अरति । २. कषायों का स्वरूप-चिन्तन करने से उनकी असलियत का पता चलता है। आत्मा में उनके अस्तित्व का निरीक्षण करने पर उन्हें ग्रहण करने की बौद्धिक क्षमता की वृद्धि होती है। उनकी हानि के दर्शन से उनके प्रति पक्षपात का अभाव होने लगता है। उनके हेयत्व के चिन्तन से उनकी तुच्छता का निर्णय होता है। उनकी अनुपादेयता के दर्शन से उनकी ग्राह्यबुद्धि समाप्त होती है। उनका परिग्रह नहीं करने से आत्मा में उनका