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नहीं जा सकता है । अतः शत्रुपक्ष का बल का माप तो अवश्य निकालना चाहिये । किन्तु साथ ही अपने को कितना बल जुटाना होगा - इसका निर्णय साहस के साथ करना चाहिये । २. गुरुदेव यह निर्णय देते हैं कि 'तुम दुर्बल नहीं हो ।' क्योंकि तुम्हें प्रभु के वचनों पर विश्वास हो गया है । कषाय ही समस्त दुःखों के हेतु प्रतीत हो रहे हैं । वे शत्रुवत् भासित होते हैं और तुम उनसे छुटना चाहते हो | ये चार बातें होने से तुम अपना बल बढ़ा सकोगे । ३. तुम में शत्रु के बल को जानने की शक्ति है तो तुम अपना बल भी जान सकते हो और कषाय शत्रु की दुर्बलता के स्थान को जानकर उसके बल को तोड़ सकते हो । ४. किसी विश्वविद्यालय के एम. ए. आदि उच्चकक्षा के छात्रों के अनुत्तीर्ण हो जाने पर नीचली कक्षा के छात्रों पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है ? क्या वे अध्ययन करने में निरुत्साहित होते हैं ? नहीं । वे तो अपने फल की ओर ही ध्यान रखते हैं और अपने उत्तम परीक्षा- फल से उत्साहित होकर आगे-आगे बढ़ते जाते हैं । यही बात यहाँ भी समझना चाहिये । उच्च गुण-स्थान स्थित जीव की असफलता की ओर न देखकर, अपनी सफलता को देखते हुए आगे बढ़ना ही श्रेयस्कर है । उन कषाय- शत्रुओं के विनाश का क्रम बतलाते हैं
तेस जे तू कंखसि, किसे वसे खयं कर । अप्पमत्तो सथा होज्जा, मा वीसंभ समं जय ॥४॥
यदि तू उन्हें जीतना चाहता है, तो उनको कृश, वश और क्षय कर । सदा अप्रमत्त रहो । ( उन पर ) विश्वास मत करो और ( उन्हें जीतने के ) श्रम में यत्न करो।
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टिप्पण - १. कषाय अनादि काल से जीव से संलग्न हैं । वे चिरकालीन अभ्यास के स्वभाव के सदृश हो गये हैं । इसलिये उन्हें एकदम क्षय करना संभव नहीं है । २. पहले कषाय को दुर्बल करके, उनके वशीभूत होने की अपनी दुर्बलता का त्याग करना चाहिये । फिर उन्हें अपने वश करके क्षय