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पीड़ा, प्रहार, वध आदि के कार्य हैं, उनके मूल में क्रोध रहता है। उन सभी प्रहारात्मक कार्यों को उपलक्षण से ग्रहण कर लेना चाहिये । ये क्रोध के बाह्य कार्य हैं । ४. तर्जना = दुत्कारना, झिड़कते हुए बोलना । तितिण = चिड़चिड़ाना, बड़बड़ाहट करना । ये दोनों वचन के कार्य हैं । प्रायः हृदय में जलते रहने से ये कार्य उत्पन्न होते हैं । फिर इनसे क्रोध परिपुष्ट होता है । ५. क्रोध से ये विकार होते हैं या इन विकारों से क्रोध होता है - यह परखते रहना चाहिये ।
क्रोध से होनेवाली जीव की दशा
पाउब्भूओ उरे कोहो, जीवं तावेइऽभितरं ।
बह भामेइ जोगे य, जणे तडतडाव ||८||
हृदय में प्रकट हुआ क्रोध जीव को भीतर से तपाता है । बाहर में योगों को (विपरीत रूप से) मोड़ता है और मनुष्यों को तड़तड़ाता है-आकुलव्याकुल कर देता है ।
टिप्पण - १. इस गाथा में क्रोध की अभिव्यक्ति से होनेवाली जीव की चेष्टाओं का वर्णन है । २. क्रोध मोहकर्म की प्रकृति है । मन के अनुकूल कार्य नहीं होने पर या अन्य किसी बाह्य निमित्त से अथवा उस कर्म की स्थिति पूरी होने पर क्रोध मोहनीय का उदय होता है । कार्मण शरीर से वह प्रकृति चलायमान होकर आत्म-प्रदेशों में व्याप्त होती है । फिर उसका मन में या हृदय में प्रादुर्भाव होता है । ३. मन में प्रकट होने पर तद्योग्य शारीरिक द्रव्य में हलचल मचती है । फिर भीतर ही भीतर ताप-सा उत्पन्न होता है । ४. वह ताप मस्तिष्क में पहुँचता है । फिर सोचने-समझने की शक्ति अवरुद्ध हो जाती है । जिससे बाह्य योगों - वचन और काया की सहज क्रियाएँ विपरीत होने लगती है । ५. वचन से असभ्य वचनों का प्रयोग होता है । हाथ, पैर, आदि की विचित्र मुद्राएँ बनने लगती हैं । यही योगों का विपरीत मुड़ना है । ६. जैसे भाड़ की उष्ण रेत में अनाज के दाने तड़