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स्थायित्व नहीं रह पाता है और उनमें अरति होने पर उनका बल टूट जाता है । ३. इनके सिवाय और भी कषाय दौर्बल्य के उपाय हो सकते हैं ।
१. स्वरूप - चिन्तन -द्वार
इस प्रकरण में प्रत्येक कषाय की क्रिया, अनुक्रिया और प्रतिक्रिया का वर्णन करते हुए उनकी पहचान, स्तर और उनकी उत्पत्ति के किंचित कारणों पर विचार किया गया है ।
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भेय - जलन - अप्पीइ-ईसाइ - दायगो मणे ।
तालणं तज्जणं कोहो, तितिणं दायगो बहिं ॥७॥
भेद, जलन, अप्रीति, ईर्ष्या आदि को मन में प्रदान करनेवाला और बाहर (= काया और वचन में) ताड़ना, तर्जना, चिड़चिड़ाहट (आदि ) प्रदान करनेवाला क्रोध है ।
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टिप्पण - १. इस गाथा में क्रोध की उसके कार्यों से पहचान बताई है । ये क्रोध के कार्य भी हैं और मूल भी हैं । जब ये क्रोध के प्रकट होने के बाद होते हैं, तब वे उसके कार्य हो जाते हैं और जब वे पहले प्रकट होते हैं, तब वे क्रोध के प्रकट होने के हेतु बन जाते हैं । ये क्रोध के पोषक भी है । २. भेद = अलगाव की वृत्ति, विभाजन के भाव, फूट । जलन ऊफान, मानसिक उष्णता । अप्रीति प्रेम का अभाव होना, द्वेषभाव । ईर्ष्या = किसी के उत्थान को नहीं सहना, पर - गुणों से मन में दुःख होना । आदि शब्द से असहिष्णुता, अतितिक्षा, परायेपन की बुद्धि आदि भाव ग्रहण किये हैं । ये सब भीतरी - मानसिक भाव हैं । ३. ताड़ना = मार-पीट | यह कायिक कार्य है । क्रोध से ताड़ना का उद्भव होता है और हँसी-मजाक में की जानेवाली झूमा-झपकी आदि से क्रोध उत्पन्न होता है । जो भी हानि,
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= ताप,