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चत्तारि एए कसिणा कसाया, तिव्वा य मंदा य कया हवित्ता । पावेहि पुण्णेहिय लोय-खेते - भार्मेति मा तेसु रमिज्ज तम्हा ॥ २४ ॥
ये चारों काले कषाय कभी तीव्र ( और तीव्र के अन्य स्तरवाले) और मन्द (और मंद के अन्य स्तरवाले) होकर पापों और पुण्यों के द्वारा (जीव को) लोक-क्षेत्र में भमाते रहते हैं । इस कारण उन ( कषायों) में (हे आत्मन् ! ) निश्चय ही मत रमो ।
टिप्पण - १. खराब फलों - काली करतूतों के कारण ये कषाय काले ही हैं । २. तीव्र कषाय और (यकार के द्वारा गृहीत) उसके अन्य प्रभेद विविध प्रकार के पाप कर्मों के हेतु हैं अर्थात् उनसे अनेक प्रकार के पाप कर्मों बन्ध होता है । ३ मन्द कषाय और उसके विविध स्तरों से अनेक प्रकार
पुण्य 'कर्मों का बन्ध होता है । ४. पुण्य और पाप कषाय की ही सन्तान
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हैं । इसलिये इन दोनों से संसार में ही परिभ्रमण होता है । ५. जब मन्द कषाय में कषाय से रहित होने के भाव या उसके समकक्ष के परिणाम जुड़ते हैं, तभी होनेवाला पुण्यबन्ध जीव के लिये आत्मोत्थान में सहायक बन सकता है । ६. कषाय का स्वरूप जानने के बाद का निर्णय यह है कि उनमें रमण नहीं करना चाहिये ।
विशेष – इस निर्णय से अगले प्रकरणों की सूचना दी गयी है । 'कषाय को पतली करके ' - बोल के इस अंश से दो विभाग बनते हैं जिसे पतला करना है - उसका स्वरूप ( = कषाय - स्वरूप ) और उसे पतला करने की प्रक्रिया | पहले विभाग को इस अध्ययन के पहले परिच्छेद के रूप में रखा है । दूसरे विभाग के दो उपविभाग बनते हैं - ( कषाय को) दुबला करना और वश में करना । इन्हें ( कषाय - ) कृशीकरण और वशीकरण के रूप में रखकर दूसरे और तीसरे परिच्छेद की रचना हुई है । 'निर्मूल करना' अर्थात् नाश करना क्षय करना । इस अंश को ( कषाय - ) क्षयकरण रूप चौथे परिच्छेद में रखा है । यही सूचना मा तेसु रमिज्ज पद से दी गयी है ।