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उन्हीं पर विश्वास करना होगा। ३. 'कषाय संमोहक है-यह दूसरी सूचना है। संमोहक संमोहक है, यह संमोहित को ज्ञात नहीं होता है । अतः वह संमोहक के विचार-संकेत के अनुसार ही कार्य करता है। जीव कषाय के द्वारा संमोहित है। अतः वह कषाय से प्रेरित रहता है। जबतक मनुष्य सचेत रहता है-संमोहक के प्रति अपने को समर्पित नहीं करता, तबतक संमोहक उसे कृत्रिम निद्रा में नहीं ला सकता और न उससे इच्छित कार्य करवा सकता है। वैसे ही जीव कषाय के प्रति समर्पित न हो-उसके स्वाधीन अपने को न करे, इस हेतु वह सचेत रहे-ऐसा प्रयत्न अपेक्षित है। ४. 'विमोह - संमोह ननाप्रकार का है'-यह तीसरी सूचना है। संमोहन को तोड़ने के लिये उसके विविध रूपों से सावधान रहना आवश्यक है। ५. 'कषाय इन्द्रजालिक है'- यह चौथी सूचना है । इन्द्रजालिक अपनी कल्पना का साक्षात्कार करवाता है अर्थात दश्य में कुछ भी वास्तविकता नहीं होती है। मात्र मायाजाल ही होता है। उसी को इन्द्रजाल कहते हैं। वैसे ही कषाय भी मिथ्या मायाजाल को खड़े करते हैं। जैसे इन्द्रजाल से लोग मुग्ध हो जाते हैं। वैसे ही जीव भी कषाय के इन्द्रजाल में मोहित हो जाता है। ६. यहाँ 'विमोहक' शब्द के दो अर्थ लिये हैं-संमोहक और इन्द्रजालिक । क्योंकि दोनों ही विमोहित करते हैं। ७. जीव ज्ञानादि दैवी गुणों का स्वामी होने के कारण इन्द्र है अर्थात किसी अधिपति के विमोहित होने पर बहुत बड़ी हानि की संभावना रहती है। वैसे जीव के विमोहित होने के कारण आत्म-ऐश्वर्य की अतिक्षति होती है।
अस्थि सो परमो सत्तू, विस्सासेइ सहा विव । तम्हा माणेइ तं जीवो, अप्परूवं व धारइ ॥२२॥
(कषाय के संमोहन और इन्द्रजाल के कारण) जीव उस पर सखा के समान विश्वास करता है। इसी कारण उसको बहुत मान देता है और उसे आत्म-स्वरूप के समान धारण करता है। किन्तु वह उसका परम शत्रु है।
टिप्पण-१. जीव को क्रोध और माया से अपना कार्य बनता प्रतीत होता है। मान से गौरव की अनुभूति होती है और लोभ से समस्त सुखों की उपलब्धि-सी दिखाई देती है। इसलिये वह इन्हें अपने मित्रवत् मानता है। २. कषाय को जीव हेय दृष्टि से नहीं, उपादेय दष्टि से देखता है। अपने हितैषियों और गरुजनों से अधिक उनको बहुमान देता है। ३. उन्हें सखा ही नहीं अपने निज स्वरूपवत् मानता है अर्थात् उनके अभाव में चेतना का