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अभाव देखता है। अधिकांश जीवों की यही दशा है । ४. जब कुछ काम farड़ता है, तब मात्र क्रोध ही अनिष्ट रूप में लगता है, किन्तु अन्य कषाय नहीं । फिर भी क्रोध के परित्याग में मान बाधक बनता है । ५. जीव कषायों
इतना अधीन बना हुआ है कि इनके परित्याग का उसे कभी मन नहीं होता है । किन्तु इन्हें धारण करने में उसे अपना हित प्रतीत होता है और उनके पोषण के लिये अपने सर्वस्व तक का समर्पण करने के लिये उद्यत रहता है । उसे प्राणत्याग में भी कोई आनाकानी नहीं होती है- उनके लिये । ऐसी स्थिति में उन्हें परमशत्रु समझना तो दूर की बात है, अहितैषी भी मानेगा क्या ? ६. मन को यह सूचना इसीलिये दी है कि वह भी जीव का ही तो अंश है । अतः उसे कितने निर्लेप - अनासक्त भाव से चिन्तन करना होगा ? मन से संबोधन का एक कारण यह भी है कि मनवाला प्राणी ही harat की विभावरूपता को अनिष्टता को मनन के द्वारा जान सकता है ।
मोक्खहे चलन्तस्स कसाओ अवरोहइ ।
तं निगडेसु बंधित्ता, पूरेइ भव-चारगे ॥२३॥
कषाय मोक्षमार्ग में चलते हुए जीव का अवरोध करता है और उसको ( पर - परिणति रूप) बेड़ियों में बान्धकर भवरूपी कारागृह में पूर देता है ।
टिप्पण -- १. इस गाथा में कषाय परमशत्रु क्यों है - इसका कारण बताया है । २. जीव की स्थिति दो प्रकार की है - मोक्षमार्ग पर चलने से पूर्व की स्थिति और मोक्षमार्ग पर चलने के समय की स्थिति । मोहमार्ग पर चलने से पूर्व की स्थिति प्रायः पूर्णतः कषाय प्रेरित ही है । कषाय उसे मोक्षमार्ग सन्मुख ही नहीं होने देता है । ३. कदाचित् कषाय से परे परिणामों
विशुद्ध से जीव यथाप्रवृत्ति को प्राप्त कर लेता है । परन्तु कषाय उसे पुनः पीछे धकेल देता है । उसे भव - कारागृह से बाहर होने का अवसर ही प्राप्त नहीं होने देता है । ४. कोई जीव मोक्षमार्ग के सन्मुख हो जाता है और कषाय के एक मोर्चे को तोड़ डालता है तो अगले मोर्चे का कषाय पुनः रोकता है। इसप्रकार कषाय और जीव में धक्का पेल चलती रहती है । जहाँ तक कषाय का वश चलता है, वहाँ तक वह उसे संसार से बाहर नहीं निकलने देता है । 'अव' उपसर्ग पूर्वक 'रोह' धातु के प्रयोग से यह बात सूचित की है ।
अब इस कषाय-स्वरूप परिच्छेद का उपसंहार किया जाता है