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का - दूषणों का सेवन होने लगता है । ४. प्रमाद योग को दूषित करता है । अतः प्रमाद योग में ही प्रतिफलित होता है । चरित्र में उपयोग को नहीं जमाना या उसका न जमना प्रमाद का स्वरूप है । इस उपयोग की फिसलन से योग की फिसलन होती है । अतः यह ऋजुता को खण्डित करती है । उस फिसलन के मूल में संज्वलन की माया है । इसी दृष्टि से यहाँ प्रमाद को माया - जन्य कहा है । प्रमाद अपनी आत्मशक्ति पर डाला हुआ पर्दा है । यों प्रमाद के मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा - ये पाँच हेतु बताये हैं । इन सबमें मोक्षमार्ग से विपरीत आचार अर्थात् वक्राचार व्याप्त है । ५. संज्वलन का लोभ अंश मात्र भी पर - पदार्थ की लालसा जगाता है । फिर भले ही वह लालसा अति सूक्ष्म रूप से यश की भी हो सकती है। लेकिन पर-पदार्थ की चाह आत्म-भाव को खण्डित करती ही है । अतः संज्वलन लोभ का फल आत्म-लीनता को तोड़ना है । ६. पूरे चतुष्क का समुदय रूप फल है - यथाख्यात चरित्र का प्राप्त न होना । ७. समस्त अतिचारों-आराधना के दूषणों का हेतु संज्वलनचतुष्क है । ८. यह मंदतम कषाय भी तीव्रतम अनन्तानुबन्धी कषाय को पुनः ला सकता है । अतः साधक को सावधान रहना चाहिये । ९. संज्वलन के क्रोध के विषय में चण्डरुद्राचार्य, संयमअरति से संबन्धित अर्हनक मुनि, मान से संबन्धित बाहुबलिजी, माया से सम्बन्धित नटकन्या से रूप-परिवर्तन करके मोदक बहरनेवाले आषाढ़भूतिजी और लोभ से सम्बन्धित रसना - रस के वशीभूत बने हुए आर्य मंगु के उदाहरण लिये जा सकते हैं ।
कषायों के चौंसठ प्रकार
रसावेक्खाइ इक्किक्कं चउ चउब्विहं हवे ।
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चउसट्ठी कसायाणं, भेया हवंति भोमण ॥ २० ॥
हे मन ! (प्रत्येक चतुष्क का ) प्रत्येक कषाय रस की अपेक्षा से चार
चार प्रकार हो जाय तो कषायों के चौंसठ भेद हो जाते हैं ।