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नहीं हो पाता है। ५. अनन्तानुबन्धी लोभ के अभाव के कारण सद्धर्म; गुण के पोषण आदि में अपने धन का-स्वतव का समर्पण करता है, परन्तु अप्रत्याख्यान लोभ के कारण देशविरति के लिये भी दैहिक सौख्य का त्याग नहीं कर पाता है। ६. अप्रत्याख्यानचतुष्क के ये कार्य धर्म से संबन्धित हैं । किन्तु उसके लोक-व्यवहार से सम्बन्धित अन्य कार्य भी प्रकट होते ही हैं । ७. इस विषय में श्रीकृष्ण वासुदेव और मगधेश श्री श्रेणिक के दो उदाहरण प्रसिद्ध ही हैं । आज भी ऐसे कई उदाहरण मिल सकते हैं । परन्तु इसका निर्णय कौन कर सकता है कि वे अविरत सम्यक् दृष्टि हैं या ढोंगीपाखण्डी ?
तीयस्स फलं विरइं, न करइ, बलमप्पणो न जुंजइ सो । 'मग्गे जोगा न वहइ, धम्मे पावे य देइ बलं ॥१८॥
तीसरे (प्रत्याख्यानावरण चतुष्क) का फल (यह है कि-) सर्व विरति स्वीकार नहीं करता है। (उसमें) वह अपने बल को नहीं जोड़ता है। (मोक्ष-) मार्ग में योगों का वहन नहीं करता है। (प्रसंगानुसार) धर्म में और पाप में अपना (तन, धनादि का) बल प्रदान करता है।
टिप्पण-१. इस गाथा में भी प्रत्याख्यानावरणचतुष्क के कार्यों के विशेष रूप से प्रायः धर्म से संबन्धित उदाहरण दिये हैं। क्योंकि साधक को साधना से ही प्रयोजन है । अतः साधना के अवरोधक कार्यों को जानना साधक की प्रधान आवश्यकता है। २. पूर्व के क्रोध का अभाव होने के कारण सर्वविरति की रुचि और प्रीति के साथ ही अंशतः विरति का प्रादुर्भाव हो जाता है। किन्तु प्रत्याख्यानावरण के क्रोध के कारण सर्वविरति के ग्रहण में अनेक आशंकाएँ उत्पन्न होती रहती हैं । ३. तत्सम्बन्धी विनय के प्रकट न होने के कारण (सर्वविरतियों का बहुमान करते हुए भी) अपनी शक्ति का उपयोग-संयोजन सर्वविरति में नहीं कर पाता है। ४. भोग रुचि के सद्भाव के कारण भोगों में पक्षपात रहता है। अतः भोगों से अपने योगों