________________
( २५ )
मदन घर से निकलने का निर्णय कर चुका था । वह किसी निमित्त. की राह देख ही रहा था और आज वह निमित्त मिल गया । वह अपना निर्णय सुनाता हुआ अपने पिता से बोला - " रखिये अपना समाज अपने पास । मुझे न इस समाज में रहना और न मुझे इस समाज के लाड़ले इस घर में रहना है। मैं जा रहा हूँ । मैंने अपना रास्ता चुन लिया है ।" नयनसुखजी उसकी बात को कुछ समझे कुछ नहीं समझे ।
उन्होंने पूछा--"कहाँ जा रहे हो ? कौन सा रास्ता चुन लिया ?" अब मदन आवेश से नहीं, शान्ति से बोला - "मुझे आपके इस अपवित्र धन मैं से हराम का एक भी पैसा नहीं चाहिये । मैं अपने कर्म क्षेत्र में जा रहा हूँ । श्रम करूँगा और उससे आजीविका चलाऊँगा ।"
पिता ने अनुभव किया कि शान्त ज्वालामुखी के तले में लावा धधक रहा है । उनसे अधिक कुछ बोला ही नहीं गया । उनके मुँह से मात्र इतना ही निकला - "अच्छा!" मदन उसी दिन अपनी पत्नी को लेकर घर से निकल गया और समीप के लघु ग्राम में चला गया । वहाँ वह धूप में मजदूरों के समान काम करता था । शरीर से पसीना बहता था । श्रम से थककर शरीर चूर-चूर हो जाता। मजदूरी में जो पैसे मिलते उससे आजीविका चलाता था । परन्तु उससे क्या होता ? जोश ठंडा पड़ रहा था । दुश्चिन्ताएँ घेरने लगीं ।
उधर नयनसुखजी ने अपनी संपत्ति का पुत्रों में विभाजन कर दिया । यद्यपि वे मदन से प्रसन्न तो नहीं थे, फिर भी पिता के कर्तव्य के नाते सम्पत्ति का एक हिस्सा उसके नाम से भी कर दिया । उन्हें मदन की चर्या का पता लग ही रहा था । कुछ परिजन माध्यम बने । मदन ने कहा - " मैं पिताजी - का एक पैसा भी हाथ में नहीं लेने का निर्णय कर चुका हूँ । किसी ने -समझाया--"अच्छा मत लो पैसा ! श्रम ही करना है तो खेती करो ।" "ठीक है । परन्तु खेती के लिये जमीन कहाँ है ? हाँ, पिताजी मुझे जमीन देंगे तो ले लूंगा ।"
"
नयनसुखजी ने उसके हिस्से की संपत्ति से जमीन खरीद कर उसे दे दी ।