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उसकी शोध मंजूर हुई । उसे 'डॉक्टर' की उपाधि प्राप्त हो गयी । पिता को इस बात का कुछ पता नहीं था ।
डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त होने से पूर्व ही मदन का सदृश कुल की कन्या से विवाह हो गया था । उसे विवाह भी अब बोझ लग रहा था । उसकी जीवन-दृष्टि से कुछ भी बातें मेल नहीं खा रही थीं । उसे समाज से, संघ से, धर्म से, घर से और अपने आपसे भी घृणा हो रही थी । परन्तु उसे पत्नी से प्रेम था । पत्नी ने भी उसकी हाँ में हाँ करने में ही कुशलता देखी । वह कभी भी पति से तर्क-वितर्क नहीं करती थी।
पड़ौसी समाज के प्रतिष्ठित सज्जन की कन्या से किसी निमित्त से उसका संपर्क हुआ । वह कन्या युवा थी । अति संगति से उनका समाज में अति अपयश होने लगा । पिता को उसके चरित्र पर तो शंका नहीं थी। किन्तु अपयश से वे डरते थे । अतः विवश होकर उन्हें इस विषय में मदन को कुछ हितशिक्षा के वचन कहने पड़े । __मदन एकदम उबल पड़ा-“मैं लीक-लीक चलनेवाला सपूत नहीं हूँ पिताजी ! मैं बराबर समुचित रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करता हूँ। इतने निषेधों के बीच में रहकर क्या ब्रह्मचर्य पाला जाता है ? ऐसा ब्रह्मचर्य कोई ब्रह्मचर्य है क्या ? एक शय्या पर सोकर भी विकार न जागे-वह सच्चा ब्रह्मचर्य है। छुई-मुईसा ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य है ही नहीं। इसीका प्रयोग किया है मैंने ?" ___ नयनसुखजी को इस बात में उसकी निर्लज्जता झाँकती हुई प्रतीत हई । परन्तु वे दबे स्वर से बोले-"बेटा ! नववाड़ों का विधान भगवान् ने ही तो किया है।" उसने खट से उत्तर दिया--"किया होगा किन्हीं ने ! मैं नहीं मानता उन्हें भगवान् ! ऐसे बुज़दिलों को भगवान् कहना भगवान् शब्द की महिमा घटाना है।" पिता का वात्सल हृदय भगवान् की इस आशातना से काँप उठा । परन्तु अपने पुत्र की प्रकृति वे जानते थे । इसलिये इस विषय में कुछ न कहकर वे इतना ही बोले-“समाज में रहना है तो समाज के ढंग से रहना चाहिये।"