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अब मदन खेती करने लगा । लोभ भी उभरा ही। वह अभक्ष्य पदार्थों का उत्पादन करके विक्रय करने लगा।
स्पष्टीकरण-इस दृष्टान्त में अनन्तानुबन्धी के विपाक को स्थल रूप से दरसाया है । जिनेश्वरदेव, तत्त्वज्ञान, तत्त्वज्ञों के प्रति अप्रीति, वक्र व्यवहार, तीव्र अहंकार-वृत्ति आदि के स्वर इसमें उभरे हैं । यह उदाहरण व्यवहार बुद्धि के अनुसार है । निश्चय तो विशिष्ट ज्ञानी ही जान सकते हैं ।
बीयस्स फलं चायं, देसं पि न करइ, वहइ दुब्बल्लं । दोसा बीहइ, न हरइ, देइ धणं, न य सुहं चयइ ॥१७॥
दूसरे (अप्रत्याख्यान चतुष्क) का फल (यह है कि-) (त्याग की रुचि होते हुए भी) वह अंश मात्र भी त्याग नहीं करता है। दुर्बलता का वहन करता है । दोषों से डरता है, किन्तु (उनको) दूर नहीं करता है और धन (दान में) देता है, किन्तु सुख का त्याग नहीं करता है।
टिप्पण-१. अप्रत्याख्यानी कषाय के कुछ उदाहरण यहाँ दिये गये हैं । वे देशविरति से संबन्धित हैं । २. अनन्तानुबन्धी के क्रोध के जाने से त्याग में प्रीति तो पैदा हो जाती है; किन्तु इस चतुष्क के क्रोध के अस्तित्व के कारण प्रीति का इतना उत्कर्ष नहीं होता कि आत्म-कल्याण के लिये स्वयं अंश मात्र विरति भी ग्रहण कर सके। ३. अनन्तानुबन्धी के अभाव के कारण उसे त्याग के सम्बन्ध में अपनी दुर्बलता का अनुभव होता है, किन्तु विनय का इतना उत्कर्ष (अप्रत्याख्यान के मान के कारण) नहीं होता कि अंश मात्र भी त्याग का वहन कर सके । बस, अपनी दुर्बलता बताकर या मानकर अपने आत्मगौरव की रक्षा कर लेता है। ४. अनन्तानुबन्धी माया के अभाव से इतनी सरलता आ जाती है कि अपने दोष-दोष रूप में प्रतीत होते हैं, दूसरे दोषों को त्यागते हैं तो अच्छा भी लगता है और दोषों से भय भी लगता है; किन्तु ऋजुता के विशेष उत्कर्ष के अभाव में दोषों का अंश मात्र भी त्याग