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हो रहे हैं, उसका उसके मन में खेद रहता है । हम भी जी-जान से प्रामाणिक रहने का प्रयत्न करते हैं । परन्तु तुम्हारा फ़ीता कुछ और ही।"
“अच्छी बातें गढ़ रखी हैं आप लोगों ने ! दंभ को पालते भी जाना और खेद करना ! कथनी और करनी का कितना बड़ा अन्तर ! आप कैसे मुखौटे लगाकर चलते हो ? भीतर में राक्षसीवृत्ति और बाहर दैवी मुखौटा! आपके कोश में मुलायम शब्द खूब है लोगों को ठगने के लिये"-मदन इसप्रकार बोल रहा था कि मानों इन तथाकथित श्रावकों की इज्जत के अभी तार-तार करके रख देगा।
नयनसुखजी बहुत-कुछ शान्ति रखते हुए भी तिलमिला गये । वे जरा झल्लाते हुए से बोले-“इन अप्रासंगिक बातों को छोड़ो । मैं तो तुम्हें धंधे पर...." मदन उनकी बात बाटकर बोला-“लगाकरअपना कर्तव्य पूरा करना चाहते हैं, यही न ! तो मैं कहता हूँ कि अब मैं छोटा बच्चा नहीं हूँ । आप मेरी चिन्ता छोड़िये ।" पिता ने अब आगे एक शब्द भी बोलना ठीक नहीं समझा । मात्र निःश्वास छोड़कर मदन की ओर नजर भर डाली । उनकी आँखें थीं बड़ी-बड़ी। कुछ रोष भी उनमें था ही। अतः मदन को वह आग्नेय दृष्टि लगी । उसने चिढ़कर तीर सा चलाया, वचन का–“आँखें किसे दिखाते हैं आप ? अब दबने के दिन गये ! बंदा यों दबने वाला नहीं है । जो सत्य है वही कहूँगा।"
मदन का अध्ययन चल ही रहा था । उसकी मेधा की तीक्ष्णता के कारण प्राध्यापक आदि उसे शोध के लिये प्रेरित कर रहे थे, जिससे उसे डॉक्टर की उपाधि उपलब्ध हो सके । यद्यपि वह अहिसक कुल में जन्मा था । गाँधीजी और विनोबाजी की विचारधारा से प्रभावित ही नहींउसके अनुसार चलने को तत्पर भी होता था । फिर भी मनुष्य में कई अन्तविरोध चलते और पलते रहते हैं । हो सकता है कि उसके अचेतन मन में अहिंसा के विरोध में कोई बात घर कर गयी हो । उससे या और किसी कारण से प्रेरित होकर अति संहारक तीव्र विष के विषय में शोध की और