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करता था । जिसकी धर्मवत्ति को देखकर मैंने इसके जिनशासन के सेवक बनने का सपना देखा था । वे विषाद के स्वर में बोले-"देखो तो मदन ! ऐसा नहीं बोला करते । तुमने अभी धर्मशास्त्र का अध्ययन कितना किया है ? गाँधीजी को अगर कोई कहे कि ये कम्युनिस्ट पार्टी के जन्मदाता नेता हैं तो क्या कोई कम्युनिस्ट इस बात को स्वीकार करेगा ? अरे ! वह उन्हें अपनी पार्टी का साधारण सदस्य भी नहीं मानेगा और स्वयं गाँधीजी भी इस बात को सत्य मान सकेंगे?"
मदन पहले तो पिता की बात से कुछ हतप्रभ-सा रह गया । किन्तु यों सहज में ही हार मान ले तो वह बुद्धिमान ही कैसा? उसने उल्टा तीर चलाते हुए कहा-“यहाँ पार्टीबाजी कैसी ? आपके धर्म को तो आप निष्पक्ष मानते हैं । फिर यह पक्षपात क्यों ? इसका आशय यह समझं कि आप उन्हें सामान्य कोटि के श्रावक से भी नीचे दर्जे का मानते हैं ! अरे वाह रे दंभ !" -फिर वह तिरस्कारपूर्वक हँसने लगा।
नयनसुखजी धैर्य के साथ बोले-“भाई ! उन्होंने कोई व्रत ही ग्रहण नहीं किये हैं तो हम उन्हें श्रावक कैसे मानेंगे?"
_ “वाह ! वाह ! धन्य है आपको ?"-व्यंग्यपूर्वक मदन बोला"दंभ की भी कोई पराकाष्टा है ? जरा देखो, अपनी और अपने श्रावकों की प्रामाणिकता ? क्या खाकर खड़े रह सकते हो, आप-उन महापुरुषों के सामने ? आप व्यापारी लोगों ने अपने धर्म को ही बदनाम कर रखा है !" ___ नयनसुखजी ने चुप रहने में ही कल्याण समझा । वे वहाँ से अलग हट गये । उन्होंने पीठ फेरते ही पुत्र की विद्रूप हँसी सुनी । वह हँसी मानो उनकी पीठ में सुइयों जैसी चुभ गयी ।
अब मदन जान-बूझकर घर में पाले जानेवाले धर्म-नियमों को भंग करने लगा । आखिर पिता नहीं चाहते हुए उसे कुछ-न-कुछ कहने के लिये विवश हो जाते । वे उसे प्रेम से ही कहते थे । परन्तु वह विद्रोही स्वर में कहता-“देखो, पिताजी ! हमसे यह नहीं हो सकेगा कि हृदय में कुछ