________________
( १८ )
पढमस्स फलं तत्तं, तण्णुं च अरोयए य गणइ लहु । वक्कं वट्टइ न करइ, समप्पणं किचि पावमई ॥ १६ ॥
अनन्तानुबन्धी- प्रथम चतुष्क का यह फल है कि तत्त्व और तत्त्वज्ञ प्रति रुचि रहती है । उन्हें लघु-तुच्छ मानता है । उनके प्रति वक्र व्यवहार करता है और किंचिन्मात्र समर्पण नहीं करता है ।
-
। उपलक्षण
।
टिप्पण - १. इस गाथा में अनन्तानुबन्धी चतुष्क के चारों कषायों के कार्य अलग-अलग बताये हैं । २. तत्त्व अर्थात् मोक्ष मार्ग में उपयोगी -ज्ञान - सारभूत हितकारी कथन -- जिन प्रज्ञप्त आगम । तज्ज्ञः - उन तत्त्वों के विशेषज्ञ, तदनुसार आचरण करनेवाले ज्ञानी, ध्यानी, मुनि से तत्त्व के प्रतिपादक आप्त पुरुष जिनदेव गृहीत होते हैं ३. तत्त्व, तत्त्व-प्रणेता और तत्त्वज्ञानियों के प्रति अरुचि होना, उनके प्रति उल्लासभाव - पूर्वक प्रीति नहीं होना, उनके प्रति शत्रुवत् दृष्टि रखना अनन्तानुधोध का कार्य प्रतीत होता है । ४. तत्त्व आदि को तुच्छ मानना, भोग, भोगी, अज्ञानी आदि को विशिष्ट मानना — उनके प्रति विनत होना और तत्त्वादि के प्रति विनत नहीं होना, अनन्तानुबन्धी मान के कार्य लगते हैं । ५. तत्त्व समझने में झूठे बहाने बनाना, उन्हें सिरपच्ची मानना, तत्त्वज्ञों से दुराव-छिपाव करना — टेढ़ा टेढ़ा व्यवहार करना — उनके संसर्ग में आने की भावना ही नहीं रखना आदि अनन्तानुबन्धी माया के कार्य अनुमानित हैं । ६. तत्त्व आदि के प्रति तन, मन, धन, जन आदि के समर्पण के भाव नहीं होना -- केवल मात्र परिग्रह के जोड़ने में ही सुख का अनुभव होना -- बुराइयों में मानसिक पकड़ गहरी होना आदि अनन्तानुबन्धी लोभ के कार्य समझे जा सकते हैं । ७. अनन्तानुबन्धी के उदय से जीव पापमति = पापी बुद्धिवाला ही हो जाता है । ८. भव भव तक वैरपरम्परा, विकारों की गाढ़ी पकड़, पापों में गौरव मानना, अत्यधिक वक्रव्यवहार-धर्म के बदले विषय-भोगों को पाने की वृत्ति, अत्यधिक भोगलालसा, सुकृत की पूंजी को डकार जाना, अति-परिग्रह और आरंभ की