Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बन्धगो ६६. उक्कस्साणुकस्स-जहण्णाजहण्णमेदाणं सव्वेसिमेव देसघादितदसणादो । पहि एदस्सेव रट्ठाणसण्णाणुगमं कस्सामो । तं जहा
* एयहाणिो वेवाणिो वा। ६७० तदुक्कस्साणुभागसंकमो वेट्टाणिओ चेव, तत्थ लदा-दारुअसमाणाणुभागाणं दोई पि णियमेणोवलंभादो । अणुकस्सो वेढाणिओ एयट्ठाणिओ वा, देसणमोहक्खवणाए अनुरसद्विदिसंतकम्मप्पहुडि एयट्ठाणाणुमागदसणादो हेटा वेढाणियणियमादो। जहण्णाणुभागसंकमो णियमेणेयट्ठाणिओ, समयाहियावलियदंसणमोहक्लेवयम्मि तदुवलंभादो । अबह एयट्ठाणिओ वेढाणिओ वा, दुसमयाहियावलियदंसणमोहक्खवयप्पहुडि जावुकस्साणुभागो षि ताव अजहण्णवियप्पावट्ठाणादो।
७१. एवं सुताणुगर्म काऊण संपहि उच्चारणामुहेण सण्णाविहाणं वत्तइस्सामो । तं जहा–तत्थ दुविहा सण्णा-घाइसण्णा द्वाणसण्णा च । घाइसण्णाणु०दुविहो णिदेसोओषेण आदेसेण य। ओषेण मिच्छ०-सम्मामि०पारसक०-अदुणोकसायाणं उक०अणुक०-जह०-अजह०संक० सव्वघादी। पुरिसवेद-पदुसंजल० उक० सव्वघादी।
६६६. क्यींकि इसके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इन सब भेदोंमें देशघातिपना देखा जाता है। अब इसीकी स्थानसंज्ञाका अनुगम करेंगे । यथा
* तथा वह एकस्थानिक भी होता है और द्विस्थानिक भी होता है।
६७०. उसका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम द्विस्थानिक ही होता है, क्योंकि इसमें लता और दारू समान यह दोनों प्रकारका अनुभाग नियमसे पाया जाता है। अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम द्विस्थानिक भी होता है और एकस्थानिक भी होता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा होते समय जब सम्यक्त्वका आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहता है तब वहाँ से लेकर उसका एकस्थानिक अनुभाग देखा जाता है । तथा इससे पूर्व द्विस्थानिक अनुभागका नियम है। जघन्य अनुभागसंक्रम नियमसे एकस्थानिक होता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपण करनेवालेके उसकी क्षपणामें एक समय अधिक एक श्रावलि काल शेष रहने पर उसकी उपलब्धि होती है। अजघन्य अनुभागसंक्रम एकस्थानिक भी होता है और विस्थानिक भी होता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें जब दो समय अधिक एक श्रावलि काल शेष बचता है तब वहाँसे लेकर प्रतिलोमक्रमसे उत्कृष्ट अनुभागके प्राप्त होने तक सब अनुभाग अजघन्य विकल्परूपसे अवस्थित है। . ६७१. इस प्रकार सूत्रोंका अनुगम करके अब उच्चारणाकी प्रमुखतासे संज्ञाका विधान करते हैं। यथा-प्रकृतमें संज्ञा दो प्रकारकी है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । घातिसंज्ञानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायोंका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागसंक्रम सर्वघाति है। पुरुषवेद और चार संज्वलनकषायोंका उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सर्वघाति है। अनुत्कृष्ट अनुभागसंक्रम सर्वधाति
१ ता० प्रतौ 'एदस्स वेढाण' इति पाठः ।