Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शतक
ध्रुवबन्धिनी प्रकृति का बन्धविच्छेद काल पर्यन्त प्रत्येक समय हराएक जीव को बंध होता रहता है और अनुबन्धिनी प्रकृति का बंधविच्छेद काल तक में भी सर्वकालावस्थायी बंध नहीं होता है । यहां घवबन्धिनी और अबबन्धिनी रूपता में सामान्य बंधहेतु की विवक्षा है विशेष बंधहेतु की नहीं। क्योंकि जिस प्रकृति के जो खास बंधहेतु हैं वे हेतु जब जब मिलें तब तक उस प्रकृति का बंध अवश्य होता है, चाहे वह अध्रुवबन्धिनी भी क्यों न हो। इसलिये अपने सामान्य बन्धहेतु के होने पर भी जिस प्रकृति का बंध हो या न हो वह अधुवबन्धिनी है और अवश्य बंध हो वह ध्रुवबन्धिनी है ।
(३) कोषा प्रकृति - जिस प्रकृति का उदय अविच्छिन्न हो अर्थात अपने उदय काल पर्यन्त प्रत्येक समय जीव को जिस प्रकृति का उदय बराबर बिना रुके होता रहता है, उसे ध्रुवोदया कहते हैं ।
(४) अनुवोदा प्रकृति — अपने उदय काल के अंत तक जिस प्रकृति का उदय बराबर नहीं रहता है, कभी उदय होता है और कभी नहीं होता है, यानी उदयविच्छेद काल तक में भी जिसके उदय का नियम न हो उसे अनुवोदया प्रकृति कहते हैं । "
सामान्य से संपूर्ण कर्म प्रकृतियों के पांच उदय हेतु हैं- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव और पांचों के समूह द्वारा समस्त कर्म प्रकृतियों का उदय होता है । एक ही प्रकार के द्रव्यादि हेतु समस्त कर्म प्रकृतियों के उदय में कारण रूप नहीं होते हैं, किन्तु भिन्न-भिन्न प्रकार के द्रव्यादि हेतु कारण रूप होते हैं। कोई द्रव्यादि सामग्री किसी प्रकृति के उदय
१ अब्चोकिन्नो उदओ जाणं पगईण ता धुवोदश्या ।
वोनिवि संभव जाण अधूवोदया माओ ।।
- पंचसंग्रह ३/३७