Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ वोदया (५) ध्रुव सत्ताक, (६) अध्रुव सत्ताक, (७) धातिनी, (८) अघातिनी, (E) पुण्य, (१०) पाप,(११) परावर्तमाना, (१२) अपरावर्तमाना (१३) क्षेत्रविपाकी, (१४) जीवविपाकी, (१५) भवविपाकी, (१६) पुद्गलविपाकी', (१७) प्रकृतिबंध (१८) स्थितिबन्ध, (१) अनुभागबंध, (२०) प्रदेशबंध, (२१) प्रकृतिबंध स्वामी, (२२) स्थितिबन्ध स्वामी, (२३) अनुभागबंध स्वामी, (२४) प्रदेशबंध स्वामी, (२५) उपशम श्रेणि, (२६) क्षपक श्रोणि ।
गाथा में निर्दिष्ट छ विषयों की परिभाषायें नीचे लिखे अनुसार है
(1) ष वग्विनी प्रकृति-अपने कारण के होने पर जिस कर्म प्रकृति का बंध अवश्य होता है, उसे ध्रुवबन्धिनी प्रकृति कहते हैं। ऐसी प्रकृति अपने बंधविश्छेद पर्यन्त प्रत्येक जीव को प्रतिसमय बंधती है।'
(२) भभूष-वग्विनी प्रतिबंध के कारणों के होने पर भी जो प्रकृति बंधती भी है और नहीं भी बंधती है, उसे अघ्र व-बन्धिनी प्रकृति कहते हैं। ऐसी प्रकृति अपने बन्ध-विच्छेद पर्यन्त बंधती भी है और बंधती भी नहीं है।
१ कर्मग्रन्थ से मिलता-जुलता निर्देश पंचमंग्रह में निम्न प्रकार है
घुवधि ध्रुवोदय सम्बधाइ परियत्तमाण असुभाओं।
पचवि सविस्खा पगई व विवागओ चहा ।। ३।१४ गाथा में ध्र वबन्धी, ध्र वोदया, सर्वघाति, परावर्तमान, मोर अशुम इन पांच के प्रतिपक्षी द्वारों तथा चार प्रकार के विपाकों का संकेत किया है।
कुल मिलाकर चौदह नाम होते हैं। २ नियहेउसंभवेवि हु भयणिखो जाण होइ पयठीणं । बचो ता अधुवाओ धूषा अभणिबंधाओ ।
-पंचसंग्रह ३.३५