Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
पद दिया है तथा 'चजह विवागा' पद से कर्मों को चार प्रकार से होने वाली विपाक अवस्थाओं का संकेत किया है । अर्थात् कर्म प्रकृतियों की निम्नलिखित सोलह अवस्थायें होती हैं, जिन्हें जिनेश्वर देव ने जीत कर जिन पद की प्राप्ति की है
(१) ध्रुव बंधिनी, (२) अध्रुव बन्धिनी, (३) ध्रुवोदया, (४) अध्रु. वोदया, (५) ध्रुव सत्ताक, (६) अध्रुव सत्ताक, (७) घातिनी, (८) अधातिनी, (६) पुण्य, (१०) पाप, (११) परावर्तमाना, (१२) अपरावर्तमाना, (१३) क्षेत्र विपाकी, (१४) जीव विधाका, (१५) भव विपाकी, (१६) पुद्गल विपाकी।
कों की उदय और सत्ता रूप अवस्था होने के लिये यह आवश्यक है कि उनका जीव के साथ बंध हो । जब तक जीव संसार में स्थित है, योग व कषाय परिणति का संबन्ध जुड़ा हुआ है तब तक कर्म का बंध होता है | योग के द्वारा कर्म वर्गणाओं का ग्रहण होता और आत्मगुणों के आच्छादन करने का उन कर्म पुद्गलों में स्वभाव पड़ता है तथा कषाय के द्वारा आत्मा के साथ कर्मों के संबद्ध रहने की समय मर्यादा एवं उनमें फलोदय के तीन, मंद आदि रूप अंगों का निर्माण होता है । इस प्रकार से कर्मबंध के चार रूप होते हैं-(१) प्रकृति बंध (२) स्थिति बंध, (३) अनुभाग बन्ध, (४) प्रदेश बन्ध ।
उक्त चार प्रकार के वैध भेदों का स्वामी जीव है । जीव अपने परिणामों द्वारा कर्म वर्गणाओं में प्रकृति, स्थिति आदि चार अंशों का निर्माण करता है। अतएव प्रकृति, स्थिति बंध आदि चार रूप जैसे कर्मबंष के हैं वैसे ही उनके स्वामियों के भी हो जाते हैं कि कौन जीव किस प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्ध का स्वामी है।
इस प्रकार से 'नमिय जिणं' से लेकर 'सामी' तक के गायांश द्वारा कर्मविजेता जिनेश्वर देव के नमस्कार पूर्वक यह स्पष्ट कर दिया है कि