Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पर मोह का प्रभाव मातम, किसी पर गाढ़तर और किसी पर उससे मो कम होता है । विकास करना यह प्राय: आत्मा का स्वभाव है। इसलिये जामते या अनजानते, जब उस पर मोह का प्रमाव कम होने लगता है, तब वह कुछ विकास की ओर अग्रसर हो जाता है और तीवतम राग-ष को कुछ मम्च करता मा मोह की प्रथम शक्ति को छिन्न-भिन्न करने योग्य आस्मबल प्रकट कर लेता है । इसी स्थिति को जैन शास्त्र में "प्रन्यि भे"* कहा है।
पन्धि मेव का कार्य अड़ा ही विषम है । रागवेष का तीव्रतम विष्ट प्रन्थि-एक बार शिथिल व छिन्न-भिन्न हो गाय तो फिर पेड़ा पार हो समझिये; क्योंकि इसके बाद मोह को प्रधान शक्ति वर्शभ मोह को शिथिल होमे में देरी नहीं लगती और दर्शनमोह शिथिल हुआ कि बारित्रमोह की शिथिलता का मार्ग आप ही आप खुल जाता है। एक तरफ राग-तुष अपने पूर्ण बल का प्रयोग करते हैं
और दूसरी तरफ विकासोन्मुख आत्मा भी उनके प्रमाव को कम करने के लिए अपने बीर्य-चल का प्रयोग करता है । इस आध्यात्मिक गुरु में थानो मानसिक विकार और आत्मा को प्रतिदिता में कभी एक तो कभी दूसरा जयलाम करता है ! ममेक आश्मा ऐसे
*मांठित्ति सुदुभेओ बवखड़ घण रूढ गूढ गरिन् । जीवस्म कम्म जणिलो घण राग धोस परिणामो ॥ ११९५ ॥ भिन्नाम्मि तम्मिलाभो सम्मत्ताई मोक्ख हेकणं । सोय दुल्लमो परिस्समचित्त विधायाई विहिं ।। ११६६ ॥ सो तत्थ परिस्सम्मई घोर महासमर निगयाइन्छ । विज्जाय सिद्धिकाले जहबा विग्या तहा सोनि ॥ ११९७ ॥
विशेषावश्यक भाष्य ।