Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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स्थानों का अनुभव करना पड़ता है । प्रथम अवस्था को अविकासकी अथवा अधःपतन की पराकाष्ठा और चरम अवस्था को विकासकी अथवा जत्कान्ति की पराकाष्ठा समझना चाहिये इस विकास - कम की मध्यवर्तिनी सब अवस्थाओं को अपेक्षा से जश्च भी कह सकते हैं और नीच भो । अर्थात् मध्यवर्तनी कोई भी अवस्था अपने से ऊपर वाली अवस्था की अपेक्षा नीच और नीचे वाली अवस्था की अपेक्षा उच्च कही जा सकती है। विकास की ओर अग्रसर आश्मा वस्तुतः उक्त प्रकार की संख्यातीत आध्यात्मिक भूमिकाओं का अनुव करता है | पर जैन शास्त्र में संक्षेप में वर्गीकरण करके उनके चौदह विभाग किये हैं, जो "चीवह गुणस्थान" कहलाते हैं।
सब आवरणों में मोह का आवरण प्रधान है। अर्थात् जब तक मोह बलवान् और तीव्र हो, तब तक अन्य समो आवरण बलवान् और तीव्र बने रहते हैं। इसके विपरीत मोह के निर्बल होते ही अन्य आवरणों की वैसी ही वशा हो जाती है। इसलिए आत्मा के विकास करने में मुख्य बाधक मोह की प्रबलता और मुख्य सहायक मोह की निर्मलता समझनी चाहिये। इसी कारण गुणस्थानों कीविकास-म-गत अवस्थाओं की कल्पना मोह-शक्ति की उत्कटता, मभ्वता तथा अभाव पर अवलम्बित है ।
मोह की प्रधान शक्तियों दो हैं। इनमें से पहली शक्ति, आत्मा को दर्शन अर्थात् स्वरूप पररूपका निर्णय किंवा जड़-चेतन का विभाग या विवेक करने नहीं देली; और दूसरी शक्तिरात्मा को विशेष प्राप्त कर लेने पर भी तदनुसार प्रवृत्ति अर्थात् अभ्यास - पर परिणति से छुटकर स्वरूप लाभ नहीं करते देती उपहार में पर-पैर पर यह देशा जाता है कि किसी वस्तु का यथार्थं वर्शन-बोध कर लेने पर हो उस वस्तु को पाने या त्यागने की चेष्टा की जाती है और वह सफल भी होती है। आध्यात्मिक विकास- गामी आत्मा के लिये भी मुख्य वो ही