Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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नहीं हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिक चारित्र और अनराहारकत्व के सिवाय अन्य सब मार्गणाएँ न्यूनाधिक रूप में अस्वाभाविक हैं । अतएव स्वरूप की पूर्णता के इच्छुक जीवों के लिये अन्त में वे हेय ही हैं। गुण स्थान के परिज्ञान से यह ज्ञात हो जाता है कि गुणस्थान यह आध्यात्मिक उत्क्रान्ति करने वाले आत्मा को उत्तरतर विकास सूचक भूमिकाएँ है। पूर्व-पूर्व भूमिका के समय उत्तरीउत्तर भूमिका उपादेय होने पर भी परिपूर्ण विकास हो अपने से वे सभी भूमिकाएँ आप ही आप छूट जाती हैं। भावों की जानकारी से यह निश्चय हो जाता है कि क्षायिक भावों को छोड़ कर अन्य सघ माय चाहे ये उत्क्रान्ति काल में उपादेय क्यों न हों, पर अन्त में हेय ही हैं। इस प्रकार जीवका स्वाभाविक स्वरूप क्या है और अस्वाभाविक क्या है, इसका विशेष करने के लिए जीवस्थान आदि उक्त विचार जो प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है. वह आध्यात्मिक विचार के अभ्यासियों के लिए अतीव उपयोगी है ।
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आत्मा
आध्यात्मिक ग्रन्थ दो प्रकार के हैं। एक तो ऐसे हैं जो सिर्फ के 'शुद्ध स्वरूप और दूसरे अशुद्ध तथा मिश्रित स्वरूप का वर्णन करते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ दूसरी कोटि का है। अध्यात्म-विद्या के प्राथमिक और माध्यमिक अभ्यासियों के लिये ऐसे ग्रन्थ विशेष उपयोगी हैं, क्योंकि उन अभ्यासों की हष्टि व्यवहार - परायण होने के कारण ऐसे प्रश्थों के द्वारा हो क्रमशः केवल पारमार्थिक स्वरूप - प्राहिनी बनाई जा सकती है ।
अध्यात्मिक-विद्या के प्रत्येक अभ्यासी को यह स्वाभाविक जिलासा होती है कि आत्मा किस प्रकार और किस क्रम से माध्यात्मिक विकास करता है तथा उसे विकास के समय कैसी-कैसी अवस्था का अनुभव होता है। इस जिज्ञासा की पूर्ति को दृष्टि से देखा जाय तो अन्य विषयों की अपेक्षा गुणस्थान का महत्व अधिक है । इस