Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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खयाल से इस जगह गुणस्थान का स्वरूप कुछ विस्तार के साथ लिखा जाता है। साथ ही यह भी बतलाया जायगा कि जैन शास्त्र की तरह बंविक तथा बौद्ध शास्त्र में भी आध्यात्मिक विकास का कैसा वर्णन है । यद्यपि ऐसा करने में कुछ विस्तार अवश्य हो जायगा, तथापि नीचे लिखे जाने वाले विचार से जिज्ञासुओं की यदि कुछ भी ज्ञान-वृद्धि तथा रुचि शुद्धि हुई तो यह विचार अनुपयोगी
न समझा जायगा |
गुणस्थान का विशेष स्वरूप |
गुणों (आत्मशक्तियों) के स्थानों को अर्थात् विकास की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं । जैन शास्त्र में गुणस्थान इस पारिभाषिक शब्द का मतलब आत्मिक शक्तियों के आविर्भाषकोउनके शुद्ध कार्यरूप में परिणत होते रहने को तर समभावापद्म अबस्थाओं से है । आश्मा का वास्तविक स्वरुप शुद्ध चेतना और पूर्णानन्यमय है। पर उसके ऊपर जब तक तीव्र आवरणों के घने बादलों की घटा छाई हो, तब तक उसका असली स्वरूप दिखाई नहीं देता । किन्तु आवरणों के क्रमशः शिथिल या भध्द होते ही उसका असलो स्वरूप प्रकट होता है। जब आवरणों की तीव्रता आवरी हर को हो, तब आत्मा प्राथमिक अवस्था में अविकसित अवस्था में पड़ा रहता है। और जब आवरण बिल्कुल ही नष्ट हो जाते हैं, सब आत्मा चरम अवस्था - शुद्ध स्वरूप की पूर्णता में वर्तमान हो जाता है। जैसे-जैसे आवरणों की तीव्रता कम होती जाती है, वैसे-वंसे आत्मा भी प्राथमिक अवस्था को छोड़कर धीरे धीरे शुद्ध स्वरूप का लाभ करता हुआ चरम अवस्था की ओर प्रस्थान करता है। प्रस्थान के समम इन दो अवस्थाओं के बीच उसे अनेक नीची-ऊंची अय
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