Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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इस तरह देखा जाय तो प्रस्तुत प्रज्य के शरदात्मक कलेवर के मुख्य पात्र हिस्से हो जाते हैं।
पहिला हिस्सा दूसरी गाथा से आठषी गाथा तक का है, जिसमें जीवस्थान का मुख्य वर्णन करके उसके सम्बन्धी उक्त आठ विषयों का वर्णन किया गया है। दूसरा हिस्सा नवी गाथा से लेकर चौवालिसी गाथा तक का है, जिसमें मुख्यतया मागंणास्थान को लेकर उसके सम्बन्ध से सः विषयों का घर्णन किया गया है । सीसरा हिस्सा पंतालिसी गाथा से लेकर प्रेसठवीं गाया तक का है, जिसमें मुख्यतया गुणस्थान को लेकर उसके माधय से उक्त बस विषयों का वर्णन किया गया है । चौश हिस्सा चौसठबी गाथा से नेकर सत्सरवी गाया तक का है, जिसमें केवल भावों का वर्णन है । पांचा हिस्सा इकहत्तरवों गापा से लियासोपी गाथा तक को है, जिसमें सिर्फ संख्या का वर्णन है । संख्या के वर्णन के साथ हो ग्रन्थ की समाप्ति होती है।
जीयस्थान आदि उक्त मुल्य तथा गौण विषयों का स्वरूप पहली गाथा के प्राचार्य में लिख दिया गया है। इसलिये फिर से यहाँ लिखने की जरूरत नहीं है। यथापि यह लिख देना आवश्यक है कि प्रस्तुत ग्रन्थ बनाने का उद्देश्य जो ऊपर लिखा गया है, उसकी सिद्धि जीवस्थान आदि उक्त विषयों के वर्णन से किस प्रकार हो सकती है।
जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान और भाव ये सोसारिक जीवों की विविध अवस्याएं हैं । जीवस्थान के वर्णन से यह मालूम किया जा सकता है कि जीवन रुप चौवह अवस्थाएं जातिसापेन हैं किंवा शारीरिक रचना के विकास या इन्द्रियों को न्यूनाधिक संख्या पर निर्भर हैं। इसी से सब फर्मकृत या यंभाविक होने के कारण अन्त में हेय हैं । मागंणास्थान के बोध से यह विदित हो जाता है कि सभी मार्गणाएं जीव की स्वाभाविक अवस्था-रूप