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अध्याय तीसरा । गाथा-आयम सच्छ पुराणं पायच्छित्तं च अण्णहा किंपि ।
विरइत्ता मिच्छत्तं पविडियं मूढ़ लोएसु ॥ ३६ ॥
भावार्थ-आगम शास्त्र पुराण व प्रायश्चित्तको और प्रकार कहा । इस तरह मूढ़ लोगोंमें मिथ्या प्रवृत्ति चलाई ॥ ३६ ।। गाथा-सो सवण संघवज्झो कुमारसेणो हु समयमिच्छत्तो ।
चत्तोवसमा रूधो कहो संघं परूवेदि ॥ ३७ ॥
भावार्थ-सो मुनि संघसे बाहर कुमारसेनने आगममें मिथ्यात व उपशमभावरहित रौद्र होकर काष्ठासंघकी प्रवृत्ति की ॥३७॥ गाथा-सत्तसए तेवण्णे विक्कमरायस्स मरण पत्तस्स ।
णंदियडे वरगामे कठो संघो मुणेयव्वे ॥ ३८ ॥
भावार्थ-विक्रमराजाकी मृत्युके ७९३ वर्ष बाद नंदीतट ग्राममें काष्ठसंघ हुआ ऐसा जानना चाहिये।
बागड़ देशमें काष्ठसंघकी प्रवृत्ति अधिक है और बागड़की तीन जातियां अर्थात् नागदा, नरसिंहपुरा और हुबड़ काष्ठसंबके नामसे बोली जाती हैं। हुबड़ोंमें जो मूलसंधी हैं वे बहुत थोड़े हैं। बागड़ देशमें नंदीतट कोई ग्राम अब नहीं है परन्तु मालूम होता है कि नंदिपड़का अपभ्रश नागढूद हुआ और वह कालान्तरमें नागदा हुआ। ८४ जातियोंके सिलसिले में ५४ वीं जाति नागदूह (नागदा) है। जो लोग नंदीतटके निवासी थे वह नागदा जाति हुई तथा इसी मेवाड़ वागड़में नरसिंहपुर पट्टन है वहांके निवासी नरसींहपुरा जाति कहलाई । शेष जो लोग कुमारसेनके शिष्य हुए वे हुमड़ कहलाए। कालांतरमें कोई मूलसंघको मानने लगे। काष्ठासंघकी उत्पत्ति लोहाचार्यजीसे भी कही जाती है। ऐसा
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