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वातावरण
प्रकाश में यह बात अतिरेक पूर्ण है । छटवीं प्रतिमा वाला स्वस्त्री सेवन द्वारा संतति तक उत्पन्न करता है, तब उसके विषय में रात्रि में मौन धारण करने का कथन आगम समर्थित नहीं है । दौलतराम जी के क्रिया कोष में पाँचवीं प्रतिमा में सचित्त भक्षण त्याग के स्थान में, सचित्त मात्र का त्याग मानकर गृहस्थ को सचित्त मिट्टी का स्पर्श न करने को कहा है। उसे मुनि तुल्य मान वे पंखा भी हिलाने की अनुमति नहीं देते। उन्होंने लिखा है :
मी हाथ धोयवे काज, लेय अचित्त दया के काज ॥। १८७१ ।। पवन करे न करावे सोय, षट् काया को पीहर होय ॥। १८७४ ॥ गृहस्थों में मूलाचार के समान पूज्य माने जाने वाले क्रिया-कोष में लिखा है कि छटवीं प्रतिमा में रात्रि के समय गमागमन नहीं करे :
गमनागमन सकल आरंभ, तजै रैन में नाँहि अचंभ || १८८२ ।। उसमें यह भी लिखा है :
छट्टी प्रतिमा धारक सोई, दिवस नारि को परसत होई ॥। १०४८ ॥ रात्रि विषै अनशन व्रत धरै, चउ आहार को है परिहरै । गमनागमन तजै निसि मांहि, मन वच तन दिन शील धरांहिं ॥। १०४६ ॥ इस प्रकार आज से लगभग तीन चार सौ वर्ष पूर्व का वातावरण तथा लोक धारणा को ध्यान में रखने पर मुनि जीवन की तो कथा ही निराली, प्रतिमाधारी श्रावक का पद कोई धारण कर सकेगा, यह अशक्य सोचा जाता था । यदि किसी ने सप्तम श्रावक के व्रत धारण कर लिए, तो उस धर्ममूर्ति का दर्शन ऐसा ही धार्मिक लोगों को हर्ष प्रदान करता था, जैसा कि पूर्व काल में चारणादि ऋद्धिधारी मुनियों का दर्शन । ऐसे समय के प्रति प्रोत्साहन शून्य तथा कृत्रिम जटिलताओं के कंटकों से पूर्ण वातावरण में महाव्रती बनने की बात को सभी लोग असंभव सदृश सोचते थे । ऐसी स्थिति में गुरु भक्त गृहस्थ या तो विदेह भूमि में विराजमान साधु समुदाय को परोक्ष प्रणामांजलि अर्पित करता था या अपनी मनोभूमि में प्राचीन काल में हुए साधुओं को विराजमान करके बड़े भाव से पूजता था । इस समय संयम के प्रति भक्ति थी, ममता थी, किन्तु मन में भय का भाव भरा था, इससे संयम के पथ पर चलने की कल्पना भी कोई नहीं करता था ।
विषय लंपटतापूर्ण वातावरण
इस काल के पश्चात् नवीन वैज्ञानिक युग का आविर्भाव हुआ । इसने अपने संमोहक अस्त्रों, जलकल, वायुयान, रेल, मोटरों आदि के द्वारा लोगों को बहुत आश्चर्यप्रद इंद्रिय पोषक सामग्री प्रदान की । लोग अधिक आमोद-प्रमोद प्रिय बन गए । अत:
आचार विचारों में अद्भुत शिथिलता का आविर्भाव हो गया। अब संयम का अनुराग
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