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चारित्र चक्रवर्ती का बड़ी भक्ति पूर्वक हार्दिक स्वागत किया। हिन्दुओं तथा मुसलमानों ने भी पूज्यश्री के प्रति उच्च भक्ति और सन्मान का भाव व्यक्त कियाथा। अब महाराज का संघ जिस किसी जगह भी पहुंचता वहां बिना पर्व के पर्व दिखता था, बिना उत्सव के महोत्सव हो जाता था, बिना विशेष प्रयत्न के महान् विशुद्धता उत्पन्न होती थी, जिससे बड़े-बड़े महत्व केमोक्षोपयोगी तथा जिनेन्द्र शासन की प्रभावना वर्धक कार्य हो जाते थे। महाराज की विवेकपूर्ण प्रवृत्ति से संयम की बात कटु न लग प्रिय और आकर्षक लगती थी। श्रेष्ठ आचरण करने वालों की बात ही निराली है। उनकी मूर्ति भी सदाचरण का जोरदार प्रचार कर हिंसादि पाप प्रवृत्तियों का निर्मूलन कर रही थी, यह बात उस समय सबके नेत्र गोचर होती थी। ___ महाराज अधिक उपदेश नहीं देते थे उनका जीवन ही स्वयं उपदेश देता हुआ लोगों
को सत्कार्यों तथा उज्जवल चरित्र की ओर प्रेरित करता था। हमें तो आचार्यश्री एक सिद्धहस्त चिकित्सक के रूप में प्रतीत होते थे कि जिनके द्वारा दी गई संयम रूपी
औषधि मोह रोगी को तत्काल शांति प्रदान करती थी। अतः वे पीयूषपाणि वैद्य के रूप में दिखते थे। वे रत्नत्रय की संजीविनी देकर रोग दूर करते थे। यह कला महाराज ने जिनेन्द्र की आराधना द्वारा प्राप्त की थी। महाकवि धनंजय ने भगवान वृषभनाथ प्रभु के स्तोत्र में उनको बाल वैद्य बताते हुए लिखा है : ___ "हे भगवन् ! अपने, दोषों के कारण पीड़ित होने वाले बालक के सदृश जगत के जीवों को आप नीरोगता प्रदान करते हैं, क्योंकि बालक के समान वे भी अपनी ही अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा विपत्ति प्रद पाप के पथ में प्रवृत होते हैं। देव ! हित और अहित के खोजने में प्रमादशील संपूर्ण जीवों के लिए आप बालवैद्य तुल्य हैं।"
बागभट्ट ने अपने अष्टांगहृदय में भगवान को बड़े सुन्दर शब्दों में अपूर्व वैद्य के रूप में स्मरण कर प्रणाम किया है, क्योंकि भगवान के द्वारा रागादि दोषों का विकार दूर किया जाता है।
तीर्थंकर भगवान की निरन्तर सेवा से प्राप्त पुण्य के प्रसाद से आचार्यश्री भी विवेक पूर्वक भयरोग दूर करने की औषधि दिया करते थे। इस औषधि से आत्मा की शुद्धि होती थी, अतः पहले आचार्यश्री ने न सिर्फ स्वयं की वृत्ति को परिशुद्ध बनाया था, अपितु विविध तपों के द्वारा वे विशेष शुद्धि का भी संपादन करते रहते थे, इस कारण उनके द्वारा सर्वसाधारण का अकथनीय कल्याण होता था। जो भक्ति पुर्वक उन्हें प्रणाम करता था उसके पाप कर्मों की निर्जरा होती थी और पुण्य का लाभ होता था। सतत सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अस्तेयभाव, वीतरागता की श्रेष्ठ आराधना द्वारा ऐसी शक्ति आत्मा
१. व्यापीडितंबालमिवात्मदोषैरुल्लाघताँलोकमवापिपस्त्वम्।
हिताहितान्वेषणमांद्यभाजःसर्वस्यजन्तोरसि बाल वैद्यः ॥५, विषापहारस्तोत्र ॥
सोमपापपस्त्वमा
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