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सल्लेखना भोजन कराओ।"
महाराज के कथनानुसार ही कार्य हुआ था। वर्धमान महाराज से मार्मिक बातचीत
शेडवाल जाते हुए वर्धमान स्वामी को आचार्यश्री के दर्शन का सौभाग्य मिला। उन्होंने आचार्य महाराज से कहा था-"महाराज! आपने तो १२ वर्ष की समाधि का नियम लिया है। मुझे आपका क्या आदेश है।
महाराज-"तुम भी हमारी तरह नियम ले लो।" उन्होंने १२ वर्ष की समाधि का नियम ले लिया। पश्चात् आचार्यश्री ने कहा, “तुम अब विशेष भ्रमण मत करो। जहाँ समय ठीक पले, वहाँ काल व्यतीत करो। अब अधिक भ्रमण ठीक नहीं है। अब बुढ़ापा बहुत आ गया है।" उस समय वर्धमान स्वामी की अवस्था लगभग ६३ या ६४ वर्ष की थी। वहाँ जब दोनों भाई अथवा परमार्थ की भाषा में दोनों गुरु-शिष्य मिलते थे, तब वे एकान्त में संयम तथा धर्म की ही बातें करते थे। धन्य था उन साधु युगल का पवित्र जीवन। लोककल्याण की उमंग
कुंभोज बाहुबली क्षेत्र पर आचार्यश्री पहुँचे। उनके पवित्र हृदय में सहसा एक उमंग आई, कि इस क्षेत्र पर यदि बाहुबली भगवान् की एक विशाल मूर्ति विराजमान हो जाय, तो उससे आसपास के लाखों की संख्या वाले ग्रामीण जैन कृषक-वर्ग का बड़ा हित होगा। महाराज ने अपना मनोगत व्यक्त किया ही था, कि शीघ्र ही अर्थ का प्रबन्ध हो गया और मूर्ति की प्राप्ति के लिए प्रयत्न प्रारम्भ हो गया। उस प्रसंग पर आचार्य महाराज ने ये मार्मिक उद्गार व्यक्त किये थे-“दक्षिण में श्रवणबेलगोला को साधारण लोग कठिनता से पहुंचते हैं, इससे सर्वसाधारण के हितार्थ बाहुबली क्षेत्र पर २८ फुट ऊँची बाहुबली भगवान् की मूर्ति विराजमान हो। मेरी यह हार्दिक भावना थी। अब उसकी पूर्ति हो जायगी, यह संतोष की बात है।"
महाराज की इस भावना का विशेष कारण है । महाराज मिथ्यात्व त्याग को धर्म का मूल मानते रहें हैं। भोले गरीब जैन अज्ञान के कारण लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता के फंदे में फंस जाते हैं। इससे उन्होंने दक्षिण में विहार करते समय मिथ्यात्व के त्याग का जोरदार उपदेश दिया था। जो गृहस्थ मिथ्यात्व का त्याग करता था, वही महाराज को आहार दे सकता था। दक्षिण में लोग प्राय: स्वतः ही शुद्ध आहार पान किया करते है, इससे उनको आहार-पान के विषय में उपदेश देने की आवश्यकता नहीं थी। महाराज लोगों से कहते थे-“कुदेव, कुगुरु और कुशास्त्र का आश्रय कभी मत ग्रहण करो। कुगुरु
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