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सल्लेखना
३६६ चलने से तरंगरहित सूखता हुआ सरोवर ही हो। जिस प्रकार अग्नि में तपाया हुआ सुवर्णपाषाण अत्यंत शुद्धि को धारण करता हुआ, अधिक प्रकाशमान होने लगता है, उसी प्रकार वह महाबल भी तपरूपी अग्नि से तप्त हो अत्यंत शुद्धता को धारण करता हुआ अधिक प्रकाशमान हो रहा था।"
"महाबल राजा असह्य शरीर के संताप को लीलामात्र में ही सहन कर लेता था तथा कभी किसी विपत्ति से पराजित नहीं होता था। इससे उसके साथ युद्ध करते समय परीषह भी पराजित हुए थे। परीषह उसे अपने कर्तव्यमार्ग से च्युत नहीं कर सकते थे।" “आचार्य जिनसेन लिखते हैं (महापुराण, ५-२४४): .
त्वगस्थीभूतदेहोपि यद्व्यजेष्ट परीषहान् ।
स्व-समाधि-बलाद् व्यक्तं स तदासीन्महाबलः॥ यद्यपि उसके शरीर में चमड़ा तथा हड्डीमात्र शेष बचे थे तथापि उस महाबल ने आत्मा की समाधि के बल से अनेक परीषहों को जीत लिया था, इस कारण उस समय वह यथार्थ में महाबल' सिद्ध हुआ था।" समाधि का पैंतीसवाँ दिन
यहाँ आचार्य महाराज की भी यही स्थिति थी। महाबल राजा ने २२ दिन पर्यन्त सल्लेखना की थी, आचार्य महाराज की सल्लेखना तो ३६ दिन तक रही। मैं उनके समीप बैठा था, वह ३५ वाँ दिन था। हीन संहनन को धारण करने वाले व्यक्ति का यह निर्मलता पूर्वक स्वीकृत समाधिमरण युग-युग तक अद्वितीय माना जायगा। आचार्य महाराज का मन तो सिद्ध भगवान् के चरणों का विशेष रूपसे अनुरागीथा। वह सिद्धालय में जाकर अनन्तसिद्धों के साथ अपने स्वरुप में निमग्न होता था।
आचार्य महाराज के समीप अखण्ड शांति थी। जो सम्भवतः उन शांति के सागर की मानसिक स्थिति का अनुसरण करती थी। उनके पास कोई भी शब्दोच्चार नहीं हो रहा था। शरीर चेष्टारहित था। श्वासोच्छ्वास के गमनागमन-कृत देह में परिवर्तन दिख रहा था। यदि वह चिह्न शेष न रहता, तो देह को चैतन्यशून्य भी कहा जा सकता था । प्रतीत होता था कि वे म्यान से जैसे तलवार भिन्न रहती है, उस प्रकार शरीर से पृथक् अपनी आत्मा के चिन्तवन में निमग्न थे।
उस आत्मा-समाधि में जो उनको आनन्द की उपलब्धि हो रही थी, उसकी कल्पना आर्तध्यान, रौद्रध्यान के जाल में फंसा हुआ गृहस्थ क्या कर सकता है? महान् कुशल वीतराग योगीजन ही उस परमामृत की मधुरता को समझते हैं। जिस प्रकार अन्धा व्यक्ति सूर्य के प्रकाश के विषय में कल्पना नहीं कर सकता, उसी प्रकार मोहान्ध गृहस्थ भी महाराज की अन्तरंग अवस्था की कल्पना नहीं कर सकते। बाह्य सामग्री से यह अनुमान होताथा कि
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