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चारित्र चक्रवर्ती
खिलौना रहता था, तो वे पूछते थे कि इसमें हम बैठ सकते हैं आदि । उस समय ऐसा लगता था कि ये वृद्ध पितामह हैं और ये संसार के श्रेष्ठ महापुरुष रत्नत्रय मूर्ति आचार्य शांतिसागर महाराज ही हैं, ऐसा नहीं मालूम पड़ता था ।
धनी - निर्धन में समान भाव
एक दिन महाराज से पूछा - "महाराज ! आप श्रीमन्तों के महाराज हैं या गरीबों के ?" महाराज ने कहा-“हमारी दृष्टि में श्रीमन्त और गरीब का भेद नहीं रहा है। अर्थ के सद्भाव - असद्भाव द्वारा बड़ेपने की कल्पना आप लोग करते हो । अकिञ्चनों की निगाह मेंधन के सद्भाव - असद्भाव का अन्तर नहीं रहता । "
आदमी की परख
एक दिन महाराज से पूछा - "महाराज ! आपके पास बैठने वाले क्या सभी खरे भक्त हैं ?” महाराज बोले- "इनमें दश प्रतिशत ही खरे हैं। यह हमें मालूम है कि कौन खरा है और कौन खोटा है। हम दूसरे के नेत्रों को देखकर ही उस आदमी को पहिचान लेते हैं।" यथार्थ में उनकी दृष्टि भीतर की बात को देख लेती थी ।
शास्त्रों को अपना प्राण मानना
धवल आदि सिद्धान्त-ग्रन्थ ताम्रपत्र में मुद्रित हुए। फलटण में धवल-ग्रन्थ विराजमान हुए थे। उनके सम्बन्ध में महाराज ने कहा था- "देखो, ये मेरे प्राण हैं, जो तुम्हारे पास हैं। मेरे बराबर इनकी रक्षा तुम लोगों को करना चाहिए ।" ये शब्द महाराज ने सैकड़ों बार कहे थे। जिनवाणी को वे अपना प्राण मानते थे । वास्तव में जिनवाणी की आज्ञानुसार ही सल्लेखना द्वारा उन्होंने अपने प्राणों का त्याग किया था।
दीक्षा और आहार
प्रश्न- “महाराज ! यदि आप सब को दीक्षा दे देंगे, तो उनको आहार कैसे मिलेगा ?" उत्तर में महाराज ने कहा- "आहार के लिए दीक्षा मत लो। दीक्षा लेने के बाद आहार अपने आप मिलेगा । "
भक्तामर स्तोत्र का प्रथम परिचय
महाराज ने बताया था कि उन्होंने अपने जीवन में सबसे पहिले भक्तामर स्तोत्र पढ़ा था । वही पहिला शास्त्र था ।
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