________________
५७२
चारित्र चक्रवर्ती
beginning for Jainism. Jainism appears as the earliest faith of India अर्थात् जैनधर्म की स्थापना अर्थात् शुरुआत अर्थात् जन्म कब हुआ इसका पता लगना अशक्य है। हिंदुस्तान के धर्मों में जैनधर्म यह अत्यंत प्राचीन धर्म है।
(३४) महान स्वतंत्रता सेनानी, राजनितिज्ञ, दार्शनिक एवं श्रीमद् भगवतगीता आदि हिंदु ग्रंथों के भाष्यकार स्व. लोकमान्य तिलक जी की अपेक्षा (७) :- स्व. लोकमान्य तिलक ने ता. ३० नोव्हेंबर १९०४ को श्वेताम्बर जैन कॉन्फ्रेंस बडौदा में जो भाषण दिया, उसमें स्पष्टतया स्वीकार किया है कि - " ग्रंथों तथा सामाजिक व्याख्यानों से जाना जाता है कि जैनधर्म अनादि है, यह विषय निर्विवाद तथा मतभेदरहित है। सुतरां इस विषय में इतिहास के दृढ़ सबूत है तथा “अहिंसा परमो धर्मः उदार सिद्धान्त की चिरस्मरणीय छाप जैनधर्म ने ही ब्राह्मण धर्म पर मारी है । भारत में यज्ञों द्वारा जो असंख्य पशुहिंसा धर्म के नाम पर की जाती थी, उसको सदा के लिये विदा कर देने का श्रेय भी जैन धर्म को है। ब्राम्हण और हिंदु धर्म में मांस भक्षण और मदिरा पान बंद हो गया, यह जैनधर्म का प्रताप है ।
"
(३५) वैदिक संस्कृति के महान विद्वान, चिंतक व दार्शनिक महामहोपाध्याय पं. राममिश्रजी शास्त्री की अपेक्षा ( ८ ) :- महामहोपाध्याय पं. राममिश्रजी शास्त्री (प्रोफेसर संस्कृत कॉलेज, बनारस) ने पौष सुदी १सं. को व्याख्यान देते हुये कहा है कि सृष्टि की आदि से जैन मत प्रचिलित है। जैनों का अनेकान्तवाद तो ऐसी चीज है कि उसे सबको मानना पडेगा और लोगों ने माना भी है।
(३६) भारतीय संस्कृति के आद्य व्याख्याता उपराष्ट्रपति डॉ. सर्वापल्ली राधाकृष्णण की अपेक्षा ( ९ ) :- इंडियन फिलोसफी के पृष्ठ- २८७ पर सर राधाकृष्णन् ने लिखा है कि " The Bhgwat Puran endorses the view that Rishabh was the founder of Jainisn” अर्थात् भागवत पुराण में स्वीकार किया गया है कि जैनधर्म के संस्थापक वृषभदेव थे। भागवत के अतिरिक्त विष्णुपुराण, वायुपुराण, लिंगपुराण, कूर्मपुराण, मत्स्यपुराण, मार्कंडेयपुराण, अग्निपुराण आदि में भी भगवान वृषभदेव और उनके माता - पिता आदि का वर्णन है, जो जैनपुराण आदि से मिलता है।
इसी अनुसार आगे कहे गये ३७, ३८, ३६ व ४०वें बिंदु हैं :
( ३७ ) जैन धर्म की प्राचीनता की सिद्धि करता ऋग्वेद व यजुर्वेद के निम्न मंत्र :- ऋग्वेद में कहा है कि- ओम् त्रैलोक्य प्रतिष्ठानाम् चतुर्विंशतितीर्थंकराणाम् वृषभादि वर्धमानां तानाम् सिद्धानाम् शरणं प्रपद्ये । इसमें भगवान् आदिनाथ तथा दूसरे तीर्थंकरों की स्तुति की है । यजुर्वेद में भी कहा है 'ओम् नमो अर्हत वृषभो । 'ये दोनों प्रमाण भी सिद्ध करते हैं कि ऋग्वेद के लेखन के पूर्व जैन-धर्म अस्तित्व में था ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org