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चारित्र चक्रवर्ती
(१६) धार्मिक क्रियाकाण्ड़ों की अपेक्षा :- जैनों का अहिंसातत्त्व हिंदुओं के अहिंसातत्त्व से सर्वथा भिन्न है। हिंदूशास्त्र होम, यज्ञ आदि में प्राणियों की जो हिंसा होती उसको पाप नहीं समझते, कारण वेदों में कहा है कि 'वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति', अतएव होम आदि में जीवों के वध को वे पुण्य समझते हैं, परन्तु जैनशास्त्र में इसका सर्वथा निषेध है, वे संकल्पपूर्वक किसी भी प्राणी के वध करने को महापाप समझते हैं।
(१७) आराध्यों की प्रतिकृतियों अर्थात् प्रतिमाओं की अपेक्षा :- जैनों के आराध्य देव तथा उनकी मूर्तियां नग्न होती हैं। जैन परम निर्ग्रथ (दिगम्बर) वीतराग देवों उपासक होते हैं, किंतु हिंदुओं के देव सवस्त्र, सरागी तथा गृहस्थी सहित होते हैं।
(१८) दोनों परंपराओं में मान्य ऋषियों के बाह्य लिंगों की अपेक्षा :- जैनों गुरु परमवीतरागी निर्ग्रथ होते हैं। लंगोट मात्र भी परिग्रह रखना उनके लिये निषेध है। केशों को भी वे हाथ से ही उखाड़ते हैं। हिंदूओं के गुरु वस्त्रसहित, जटाधारी, पंचाग्नि तप तपनेवाले तथा चिमटा शस्त्र आदि को धारण करनेवाले होते हैं ।
(१६) धर्म सेवन का फल मुक्ति की अपेक्षा :- जैनशास्त्र मुक्त आत्मा का पुनरागमन नहीं मानते, जब कि हिंदू शास्त्र मुक्त आत्मा का भी पुनरागमन मानते हैं।
(२०) हिंदु संस्कृति में मान्य धार्मिक अनुष्ठान के विपरित मान्यताओं की अपेक्षा :- जैन लोग गंगा यमुना आदि नदियों में स्नान करने को पुण्य नहीं मानते, जबकि हिंदु पुण्य समझकर उसमें स्नान करते हैं।
(२१) हिंदु संस्कृति में मान्य धार्मिक अनुष्ठान की मान्यताओं के अभाव की अपेक्षा : - जैनागमों में श्राद्ध, तर्पण, पिण्डदान आदि की क्रिया विधियों का सर्वथा अभाव है, जबकि हिंदुशास्त्र उसे आवश्यक - धर्म मानते हैं ।
(२२) हिंदु संस्कृति में मान्य मांत्रिक अनुष्ठानों से विपरित मान्यताओं की अपेक्षा :- जैनों के मंत्र व उनकी अनुष्ठान विधि भी हिंदुओं के मंत्रों व उनके अनुष्ठान विधियों से सर्वथा जुदी है।
(२३) निर्दोष संसार व्यवहार परिपालनार्थ संपन्न की जाने वाली विवाह विधि की अपेक्षा :- जैनों की विवाह विधि, क्रिया व आचरण आदि भी हिंदुओं की विवाहविधि, क्रिया व आचरण आदि से सर्वथा भिन्न हैं ।
(२४) हिंदु साहित्य में जैनियों के लिये प्रयुक्त विशेषणों की अपेक्षा :- जब हिंदु लोग ही जैनों को नास्तिक (ईश्वर को नहीं मानने वाले), उनके देवों की नंगे देव व गुरुओं नंगे साधु आदि कहकर निंदा करते हैं, तब यह कैसे कहा जा सकता है कि जैन हिंदु है ।
(२५) दोनों मतों की स्व-स्व मत के मान्य ऋषियों द्वारा प्रणीत सामाजिक न्याय व्यवस्था की अपेक्षा :- जैन लॉ भी हिंदु लॉ से सर्वथा भिन्न है । प्रिव्ही कौंन्सिल
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